Book Title: Gyandhara
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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प्रयोग पर कर्मोंको उदयमें लाना उदीरणा है । उदीरणा के लिए अपवर्तना द्वारा कर्मको स्थिति को कम कर दिया जाता है ।) एक कर्म प्रकृति का दूसरी सजातीय कर्म - प्रकृति में परिवर्तित होना संक्रमण है। यह संक्रमण कर्म के मूल भेदों में नहीं होता अर्थात् कर्मोंके आठ भेदों में से एक कर्म दूसरे कर्मरूप नहीं हो सकता । किन्तु एक कर्म के अवान्तर भेदोंमंसे एक भेद अपने सजातीय अन्य भेदरूप हो सकता है। जैसे वेदनीय कर्म के दो भेद - साता वेदनीय और असातावेदनीयका परस्परमें संक्रमण हो सकता है। किंतु आयुष्य-कर्म की प्रकृतियाँ तथा दर्शनमोह और चारितमोहका आपसमे संक्रमण नहीं होता ।
उपशमन आठ कर्मों में सर्वाधिक सक्षम मोहनीय कर्मको दबाना या उसे अकिंचित्कर बना देना उपशम है । जिस समय मोहनीय कर्मका प्रदेशोदय और विपाकोदय नहीं रहता, उस अवस्था को उपशम कहते हैं । कर्मों के उदय को कुछ समय के लिए रोक देना ही उपशम है । निधति - उद्वर्तना एवं अपवर्तना के सिवाय शेष करणोंके अयोग्य अवस्था को निधत्ति - उद्वर्तना एवं अपवर्तना के सिवाय शेष करणोंके अयोग्य अवस्थाको निधत्ति कहते हैं। इसमें कर्मोंका उद्वर्तन एवं अपवर्तन नहीं होता। शेष सभी करणों का संबंध और गाढ रूपमें बन जाता है ।
आत्मा और कर्म के संबंध को इतना प्रगाढ बना देना कि जहा स्थिति आदि में न्यूनता अधिकता हो ही न सके, ये निकाचना है । समस्त करणों को अयोग्य कर देने को निकाचना कहते है। जिनके विपाक को भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता, वे निकाचित कर्म कहलाते हैं। ये कर्मबंध की द अवस्थाएँ हैं।
आस्रव एवं बंधतत्त्व संसार तत्व है। इस आस्रव एवं बंध तत्त्वके कारणही जीव संसारमें परिभ्रमण करता है । इसीलिए दोनों तत्त्व हेय हैं। प्रत्येक समयमें जीव योग और उपयोगसे जैसे कर्मको आकर्षित करके बाँधता है वैसे ही स्वाभाविक स्थिति बंधके क्षय से कर्म की निर्जराके भी होती है । यह निर्जरा नवीन कर्मबंधके लिए कारणभूत होती है, क्योंकि जिस समय कर्म उदयमें आकर निर्जर होता है तब योग और उपयोग से प्रेरित होकर पुनः कर्म आस्रव
જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨
જ્ઞાનધારા
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