Book Title: Gyandhara
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre

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Page 289
________________ विरोध नहीं करेगा। परंतु गुरुत्वाकर्षण शक्ति, बाह्य भौतिक या जैविक आदि विरोधी शक्ति के कारण उस गति में परिवर्तन आ जाता है। इसी प्रकार जीवकी स्वाभाविक उर्ध्व गति होते हुए भी विरोधात्मक कर्मशक्ति से प्रेरित होकर कर्म संयुक्त संसारी जीव चतुगतिरूप संसार में परिभ्रमण करता रहता है, परंतु जब कर्म बंधनों से मुक्त हो जाता है प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध, प्रदेश बंधसे संपूर्ण रूप से मुक्त होने के बाद परिशुद्ध स्वतंत्र शुद्धात्मा तिर्यक आदि गतियोंको छोडकर उर्ध्वगमन करके सिद्धशीला में बिराजता है। इसी तरह आत्मा और कर्म का संबंध अनादि से है। कर्म संयुक्त आत्मा ही कर्म का कर्ता है। पूर्व कर्म से बंधा हुआ जीव ही नये कर्मों का बंध करता है, कर्मका भोक्ता भी आत्मा स्वयं है। कर्म-फलदान आत्माको स्वतः मिलता है - किसी ईश्वर या बाह्य माध्यम से नहीं। जैन दर्शनके अनुसार समग्र कर्मोंका क्षय मोक्ष है। आत्माका शुद्ध स्वरूप जो कर्मों द्वारा आवृत्त था, कर्मक्षय होनेसे प्रगट हो जाता है। यह आत्मा की अनंतज्ञानमय, अनंत दर्शनमय, अनंत सुखमय अवस्था है। आत्माही अपने पुरुषार्थसे अनादिकालीन बद्ध अवस्था से मुक्त हो सकती है। जैन दर्शन के अनुसार मुक्तावस्था का आनंद शाश्वत, नित्य, निरतिशय और विलक्षण है, जो शब्दातीत है। आध्यात्मिक साधना का सारा मार्ग नए कर्मों के बंधने को रोकने तथा बद्ध कर्मों के प्रभाव से मुक्त होकर उन्हें आत्मा से दूर करने को विक्रिया के रूप में है, वही मोक्षप्राप्ति का उपाय है। 77 જ્ઞાનધારા २७० જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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