Book Title: Gyandhara
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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आदि निरीक्षण करके करना आलोकितपान भोजन है। यह अहिंसात्मक स्थिति
द्रव्य एवं भाव अहिंसा :
जैन विचारणा हिंसा का दो पक्षों से विचार करती है। एक हिंसा का बाह्य पक्ष है जिसे जैन पारिभाषिक शब्दावली में द्रव्य-हिंसा कहा गया है। द्रव्यहिंसा स्थूल एवं बाह्य घटना है। जिसे प्राणातिपात, प्राणवध, प्राणहनन आदि नामों से जाना जाता है।
भावहिंसा हिंसा का विचार है, यह मानसिक अवस्था है, जो प्रमादजन्य है। आचार्य अमृतचन्द्र के शब्द में रागादि कषायों का अभाव अहिंसा है और उनका उत्पन्न होना हिंसा है। तत्वार्थसूत्र के अनुसार राग, द्वेष आदि प्रमादों से युक्त होकर किया जानेवाला प्राण-वध हिंसा है। हिंसा के विभिन्न रूप :
जैन धर्म में साधु की अहिंसा को महाव्रत कहा है। महाव्रत की परिभाषा बताते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में बताया गया है कि- मन, वचन, काय तथा कृतकारित और अनुमोदन से किसी भी परिस्थिति में त्रस-स्थावर जीवों को दुःखित न करना अहिंसा महाव्रत है।१२ अहिंसाव्रती साधु के लिए बताया गया है कि अपना अहित करनेवाले के प्रति भी क्षमा भाव रखें। उसे अभयदान दे। सदा विश्वमैत्री और विश्वकल्याण की भावना रखें तथा किसी के प्रति जरा भी क्रोध न करें। उत्तराध्ययनसूत्र में बताया है कि पुव्विं च इहिं च अणागयं च मणपदोसो न मे अत्थि कोई। १२/३२; महप्पयासा रुसिणो हवंति न हु मुणी कोवपरा हवंत। अहो न संजले भिक्खू मणं पि न पओसए। २/२६; मेत्तिं भूएसु कप्पए ६.२ हियनिस्सेसाए सव्वजीवाणं। ८/३ इसी प्रकार अहिंसा का पालन करना दुष्कर है।
__ गृहस्थ की हिंसा को चार भागो में विभक्त किया गया है। १. सांकल्पिकी - संकल्प या विचारपूर्वक होनेवाली हिंसा। यह आक्रमणात्मक हिंसा है। ૨૪૩
જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨
ज्ञानधारा
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