Book Title: Gyandhara
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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कार्य के तीन प्रकार है। (१) संचित कर्म (२) प्रारब्ध कर्म एवं (३) क्रियमाण कर्म
(१) संचित कर्म : ऐसे कर्म हैं जिन कर्मो का फल हमें भोगना बाकी हैं। इन कर्मो को संचित कर्म कहा जाता है। इस कर्म में शुभ एवं अशुभ दोनों ही कर्मो का समावेश हो जाता है। कर्म का सिद्धांत शाश्वत है इसलिए संचित कर्मों का संचय होता रहता है। संचित कर्म हमें इस जन्म में तथा आनेवाले कई जन्मों तक भोगना होगा। उदाहरण स्वरूप आप इस जन्म में संगीत अथवा कला की उपासना करते हैं, महेनत करते हैं तो हो सकता है उसका फल आपको इस जन्म में न मिले, उसका फल आगामी जन्म अथवा आनेवाले कई जन्मों में मिले। आपको इस जन्म में संगीत एवं कला की उपासना से ख्याति एवं धन न मिले परंतु आगामी जन्म में उस फल की प्राप्ति हो सकती है।
(२) प्रारब्ध कर्म : संचित कर्म पक कर फल देने को तैयार हो जाते हैं तब उन्हे प्रारब्ध कर्म कहा जाता है। इस जन्म में हम सुख अथवा दुःख का अनुभव करते हैं वही प्रारब्ध कर्म है। प्रारब्ध कर्मको भोगा जाने वाला कर्म माना गया है, इसे संचित अर्थात् इकट्टा नहीं किया जा सकता। प्रारब्ध कर्म का फल मीठा एवं रसीला होता है अथवा कडवा भी हो सकता है। कुछ प्रारब्ध कर्म सुख देनेवाले होते हैं तो कुछ दुःखदायक। इन कर्मो का परिणाम स्वयं ईश्वर ने ही हमारे लिए पसंद किया है। तदनुसार आनंद-शोक्, सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान जैसी भावनाओं का अनुभव हमें करना होता है। हमारी इच्छा हो अथवा इच्छा न भी हो प्रारब्ध कर्मो का फल हमें भुगतना ही होता है। हमे ऐसा मानते है कि पूर्व जन्मों के कर्म के कारण हम हमारा भविष्य बदल नहीं सकते। वास्तव में ऐसा नहीं है। हमारी इच्छा के अनुसार एवं हमारी बुद्धि से तथा शुभ विचारों से क्या अच्छा है तथा क्या बुरा है इसका निर्णय कर सकते हैं। कौनसी वस्तु सुखदायी होगी तथा कौनसी वस्तु हमें पीडा का अनुभव कराएगी, कौनसा मार्ग हमें परमात्मा के पास ले जाएगा तथा कौनसा मार्ग हमें ईश्वर से विमुख कर देगा - ऐसी सोच हम भली भाति कर सकते है।
(३) क्रियमाण कर्म : इस कर्म को आगामी कर्म भी कहा जाता है।
જ્ઞાનધારા
૨૫૬)
જૈિનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨)
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