Book Title: Gyandhara
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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की भावना है। हमारी पंचेन्द्रियों से यदि हम सही अथवा सकारात्मक कार्य नहीं करेंगे तो हमारी प्रगति में बाधाए उत्पन्न होगी।
(३) वेदनीय कर्म - हमारे सांसारिक सुख-दुःख एवं भौतिक सुखों तथा पीड़ा का अनुभव कराते हैं।
(४) मोहनीय कर्म - हमारे मन में तथा जीवन में मोह तथा अज्ञान उत्पन्न करानेवाले कार्यों को मोहनीय कर्म कहा जाता है। परिणाम स्वरूप अच्छा क्या है तथा बुरा क्या है यह भूल जाते हैं।
(५) आयु कर्म - आत्मा के विभिन्न आकार, नाम धारण करानेवाले कर्मों का आयु कर्म माना गया है। यही कर्म हमारे जीवन की अवधि की गणना तय करते हैं।
(६) नाम कर्म - ऐसे कर्म हमारी त्वचा, रूप, रंग आदि निश्चित करते
(७) गोत्र कर्म - ये कर्म हमारे कुल, जाति का प्रभाव तथा जन्म निश्चित करते हैं। हर एक प्राणी में ऊँच तथा नीच की भावना गोत्र कर्म निर्धारित करते है।
(८) अंतराय कर्म - कोई अच्छा कार्य करने की इच्छा हमारे मन में होती है अथवा बूरा कार्य करने की इच्छा मन में जागती है तथा इस प्रक्रिया में रूकावट डालनेवाले कर्म को अंतराय कर्म कहते है। उदाहरणस्वरूप यदि हम किसी संस्था को दान करना चाहते है तब दान करने का विचार भी मन में आ सकता है तब ऐसे अंतराय कर्म बनते हैं।
जैन धर्मने कर्म की इन् आठ प्रकृतियों को १४४ विभागो में बाँटा गया है। ये सभी १४४ विभागों के कर्म हमारे जीवन में अनुभव कराते हैं। सांसारिक सुख-दुःख तथा विविध-प्रकृतियाँ इन कर्मों पर आधारित रहते हैं। यहीं कर्म हमे हमारा जन्म, पुनर्जन्म, सुख, दुःख, पीड़ा, उत्साह आदि चक्र में जकड़े रहते
हमारा सामान्य जीवन और कर्म का सिद्धांत
हम जीवन यापन करते है तथा हमारी सांसारिक जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हैं। हम स्वयं हमारे प्रति, हमारे परिवार के लिए, हमारे सगे संबंधियों के
જ્ઞાનધારા
ज्ञानसत्र-२
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