Book Title: Gyandhara
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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आकर्षित होते हैं, ये क्रियाएँ ही बंधनकी मूल कारण हैं। उदा. जिस प्रकार कुंभकार चाक आदि निमित्त कारणों के बिना मिट्टी स्वतः घटका निर्माण नहीं कर सकती, उसी प्रकार आत्मा किसी बाह्य निमित्त के बिना बंधनमें नहीं आ सकती। आत्मा के बंधन में जो बाह्य निमित्त हैं उन्हें कर्म वर्गणाके पुद्गल कहते हैं। जैसे बीज और वृक्षमें पारस्पारिक कार्य-कारण भाव है, वैसे ही आत्मा के बंधनकी दृष्टिसे आत्माकी अशुद्ध वृत्तियाँ ( कषाय और मोह) और कर्म-वर्गणाके पुद्गलों में पारस्पारिक संबंध है। बंधन की दृष्टि से जड कर्म परमाणु और आत्मामें निमित्त और उपादान का संबंध है। कर्म पुद्गल बंधन के निमित्त कारण है और आत्मा उपादान कारण । इस प्रकार जैन दर्शनमें एकांत रुपसे न तो आत्मा को बंधन का कारण माना है और न ही पुद्गल को किंतु दोनों के पारस्पारिक संयोग से आत्मा बंधन में आता है।
जीव के साथ कर्मबंध होने के लिए पुद्गल के बंध योग्य गुणोंके साथसाथ जीवमें भी बंध होने योग्य गुणों की आवश्यकता अनिवार्य है । अतः कर्म वर्गणा में स्निग्धत्व- रुक्षत्व गुण होने पर भी जीवमें स्निग्धत्व (राग - आकर्षण धन आवेश), रुक्षत्व (द्वेष- विकर्षण ऋण आवेश) गुण नहीं होने पर जीवके साथ कर्मबंध नहीं हो सकता। वैज्ञानिक दृष्टि से समझे तो चुंबक अपने चुंबकीय क्षेत्रमें स्थित लोह खंडको आकर्षित करता है परंतु उस क्षेत्रमें स्थिर पत्थर, लकडी आदि को आकर्षित नहीं करता है । क्योंकि चुंबकमे आकर्षण करनेकी शक्ति है तथा लोह में आकर्षित होनेकी । ये दोनो शक्तियोंमें से एक भी शक्ति के अभाव में परस्पर आकर्षण एवं आकर्षित नहीं हो सकते। इसी प्रकार पुद्गल वर्गणा में आकर्षित होने की शक्ति होने पर भी संसारी जीवमें आकर्षित करनेकी शक्ति है इसीलिए कर्मबंध होता है। इससे सिद्ध होता है कि अनादि कालसे जीव कर्मबंधन से सहित होने के कारण मूर्तिक एवं रागद्वेष से सहित है (जैसे सुवर्ण और चांदीका एकसाथ गभाने दोनों एकरूप हो जाते हैं उसी तरह जीव और कर्मोंका बंध होने से परस्पर एकरुप बंध हो जाता है । तथा यह कर्मबंध के कारण संसारी आत्मा मूर्तिमान है ।
शुभ और अशुभ प्रवृत्ति द्वारा आकृष्ट, और संबंधित होकर जो पुद्गल
જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨
જ્ઞાનધારા
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