Book Title: Gyandhara
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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वर्तमान जन्म में हम जो भी कर्म करते हैं वे सभी क्रियामाण कर्म है। हमारे वर्तमान जन्म में हमें किस प्रकार का जीवन व्यतीत करना चाहिए यह सोचने कि लिए हम स्वतंत्र हैं। हमें हमारा चरित्र एवं प्रारब्ध बदलने की पूरी स्वतंत्रता मिलती है। दिन-प्रतिदिन, रोजाना, हर महिने, पूरे वर्ष जन्म से लेकर मृत्यु तक
जो भी कार्य हम करते हैं उन्हें क्रियमाण कर्म कहा जाता है। हम जो भी क्रियमाण कर्म करते हैं उनका फल हमें भुगतना ही होता है। उदाहरण स्वरूप, हमें प्यास लगी तो पानी पिया, प्यास बुजा गयी। कर्म फल मिला और शांति मिली। किसी से वाद-विवाद हुआ, मारपीट हुई, गाली-गलौच हुई तो उस व्यक्ति ने भी हमारे साथ वैसा ही व्यवहार किया, इस कर्म का फल हमें तुरंत ही मिल गया। इस प्रकार क्रियमाण कर्म का फल मिलता है एवं तुरंत ही मिलता है। कर्मशास्त्र की आठ प्रकृतियाँ
जैन कर्मशास्त्र के अनुसार कर्म की आठ प्रकृतियाँ मानी गयी हैं। ये विभिन्न प्रकृतियाँ हर एक व्यक्ति को भिन्न-भिन्न प्रकार से अनुकूल अथवा प्रतिकूल फल देती हैं। ये आठ मूल प्रकृतियाँ निम्नानुसार हैं।
(१) ज्ञानावरणीय (२) दर्शनावरणीय (३) वेदनीय (४) मोहनीय (५) आयु (६) नाम (७) गोत्र तथा (८) अंतराय
(१) ज्ञानावरणीय कर्म - ज्ञान अर्थात् जानकारी प्राप्त करना। वरणीय अर्थात् इसमें रूकावट लाना। आत्मा को सच्चा ज्ञान प्राप्त करने में बाधा डालना यही कर्म ज्ञानानवरणीय कर्म हैं। हम सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते तो भला हमारी उन्नति कैसे होगी और हम हमारे बारे में क्यां जान पायेंगे।
(२) दर्शनावरणीय कर्म - दर्शन का अर्थ यहाँ पर श्रद्धा तथा विश्वास
ज्ञानधारा
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(જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨)
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