Book Title: Gyandhara
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
View full book text
________________
कमसिद्धातकादाशनिक एव क्ज्ञानिक विवचन.
- रश्मि भेदा __ (बीओस.सी.; अम.ओ. डीप्लोमा जैनोलोजी; ओडवान्स डिप्लोमा जैनोलोजी, वर्तमानमें पीएच.डी. शोधकार्य ‘जैनयोग' पर कर रहे है।)
भारत के विचारक दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, तत्त्व-चिंतक आदि प्रायः सभी कर्मको एक या दूसरे रूपमें मानते हैं। 'कर्म' शब्द भारतके सभी आस्तिक धर्म-ग्रंथ, दर्शन या धर्मग्रंथोंमें प्रवृत्त हुआ है। भारतके सभी आस्तिक दर्शन और धर्मोंने 'कर्म' या इसके समान एक ऐसी सत्ताको स्वीकार किया है जो आत्माकी विभिन्न शक्तियोंको गुणोंको या शुद्धताको प्रभावित आवृत्त या कुंठीत कर देती है।
___ हमें संसारमें बडी विषमता दिखाई देती है, संसारमें रहनेवालेसमस्त प्राणियों में नानाविध-अंतर देखते है, जैसे कोई अमीर है, कोई गरीब कोई सुंदर है कोई कुरुप, कोई बलीष्ठ है, कोई कमजोर, कोई बुद्धिमान है, कोई मूर्ख। इसी तरह ये जगतमें हमे एक जीव और दूसरे जीव के बीच तारतम्य-न्यूनाधिकता देखते है। यह विषमता का कारण है प्राणियों के अपने अपने कर्म। यतः सब प्राणियों के कर्म जुदी जुदी तरहके होते हैं, अत- उनका फल भी जुदा जुदा होता है। यही कारण है कि संसारमें चराचर प्राणियोंमें इतनी विषमता देखी जाती है। इसीसे कवि तुलसीदासने रामायणमें लिखा है।
करमप्रधान विश्व करी राखा जो जस करहि सो तस फल चारवा प्राणी जैसा कर्म करता है वैसा ही फल भोगना पडता है। मोटे तोरसे यही
ज्ञानधाश
જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org