Book Title: Gyandhara
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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जीव को भोगना ही पड़ता है, उनमें कोई भी परिवर्तन संभव नहीं होता। कर्म का कर्तृत्व व भोक्तृत्व
जैन दर्शन के अनुसार जीव स्वयं ही कर्म करता है, स्वयं ही फल पाता है। भगवान महावीर ने कहा - अप्पा कत्ता विकता य, दुहाण य सुहाण य। अर्थात् आत्मा सुख दुख की कर्ता व भोक्ता स्वयं है। फल भोग करवाने हेतु किसी शक्तिशाली नियंता या ईश्वर की आवश्यकता नहीं हैं। कर्म विपाक आने में परिस्थिति, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव आदि निमित्ते अवश्य बनते हैं। जैसे - नाटकीय व देवों को नींद नही आती, इसका हेतु भव है। यद्यपि वहां दर्शनावरणीय कर्म है फिर भी निद्रा न आने का कारण भव है। अफ्रीका के अधिकांश लोग काले व यूरोप के अधिकांश लोग सफेद होते है , इसका हेतुक्षेत्र है। नींद रात्रि में आती, दिन में नहीं - इसका कारण काल है। वैज्ञानिकों द्वारा आविष्कृत रेडियो, टी.वी. कम्प्यूटर आदि जड पदार्थों में परमाणुओं की विलक्षण शक्ति देखी जाती है। ठीक वैसे ही जड़ कर्मों की विलक्षण शक्ति का चमत्कार विश्व में प्रत्यक्ष हैं।
अन्तः स्त्रावी ग्रंथियां और कर्म ___कर्म एक रासायनिक प्रक्रिया हैं। जैसे हमारी ग्रंथियों की रासायनिक प्रक्रिया होती है, वैसे कर्म की भी रासायनिक प्रक्रिया होती है। शरीर शास्त्र के अनुसार अन्त ःस्त्रावी ग्रंथियों के स्त्राव ही शारीरिक व मानसिक अवस्थाओं के नियामक माने जाते हैं। पीनियल ग्लैण्ड की समुचित क्रिया के अभाव में प्रतिभा का विकास नहीं होता। थायराईड का स्त्राव यदि असंतुलित तो आदमी अत्यधिक लंबा या बोनी रह जाता है। एड्रीनल ग्रंथि का असंतुलित स्त्राव व्यक्ति को उद्दण्ड, क्रोधी व दब्बू बना देता है। गोनाड ग्रंथि यौन उत्तेजना व यौन चिन्ह की नियामक है।
ग्रंथि विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में हम कर्मों के शरीर में प्रकट होने के स्थान की संभावित कल्पना कर सकते हैं। किन्तु ग्रंथियां या इनके स्त्राव भी मूल कारण नहीं है। इनके पीछे सूक्ष्म कारण है। वह कारण है - कर्म। ज्ञानधारा
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જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨
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