Book Title: Gyandhara
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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छोटे जीव-जंतु और प्राणियों की और वनस्पति की रक्षा होती है तथा पर्यावरण की भी सुरक्षा होती है।
पंद्रह कर्मादान के संदर्भमें लकडी आदि काट कर कोयले आदि बनाने से वनस्पतिका भी नाश होता है और जलने से वायु भी प्रदूषित होता है। पशुओं को किराये पर देना या बेचना भी अधर्म माना गया है। यहाँ अहिंसा के अनुकंपा और सहिष्णुता का भाव भी निहित है। पशुओं के दांत, बाल, धर्म, हड्डी, नख, रों, सींग और किसी अवयव का काटना और इससे वीजवस्तुओंका निर्माण करके व्यापार करना निषिद्ध है।
बुद्ध और महावीर के समय में ब्राह्मण शब्द ज्ञातिवाचक बन गया था, उसकी यथार्थ व्याख्या महावीर और बुद्धने बहुत समान रूप से दी है। मानव जन्म से नहि, कर्म से श्रेष्ठ होता है। जन्म से नहीं कर्म से ब्राह्मण बनता है। समभाव से श्रमण होता है और अहिंसादि व्रत और पंचशीलों के पालन से ही ब्राह्मण बनता है। जैसे महावीर स्वामीने कहा है -
तसपाणे वियाणेत्ता, संगहेण य थावरे । ___ जो न हिंसइ तिविहेणं, तं वयं बूम माहणं ।।
त्रस एवं स्थावर प्राणियों की हिंसा से निवृत्त होने का जिस प्रकार जैनवांगमय में प्रतिपादन हैं, वैसे ही बौद्ध वाङ्गमयमें भी है। वहाँ न केवल भावसाम्य है, वरन शब्द साम्य भी है। इससे अहिंसा की व्यापकता और माहात्म्य फलित होता है। अहिंसक समाजकी स्थापना : __हमारे व्यक्तिगत जीवनमें क्लेषादि भावरूप वृत्तियाँ और विचारधारायें हैं जिनके कारण समाजमें हिंसा उत्पन्न होती है। जब तक मनुष्य के मन में
अहंकार, राग-द्वेषादि रहेंगे तब तक अहिंसा का पालन और शांतिपूर्ण जीवनकी संभावना नहीं है।
हमारे व्यावहारिक जीवन की तीन प्रकारकी विषमताएं है - (१) आसक्ति, (२) आग्रह और (३) अधिकार भावना।
જ્ઞાનધારા
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જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨)
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