Book Title: Gyandhara
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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अहिंसा का स्वरूप :
अहिंसा का शब्दार्थ है हिंसा का निषेध | यह उसका निषेधरूप है। उसके विधेयात्मक रूपमें प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव, राग-द्वेष- मोह आदि कषायों के अभाव को हम बता सकते हैं । वस्तुत: अहिंसा का मूलधार जीवन के प्रति सम्मान, समत्वभावना एवं अद्वैतभावना है । समत्वभाव से सहानुभूति तथा अद्वैतभाव से आत्मीयता उत्पन्न होती है और इन्हीं से अहिंसा का विकास होता है। अहिंसा जीवन के प्रति भय से नहीं जीवन के प्रति सम्मान के भाव से विकसित होती है ।
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जैन और बौद्ध धर्ममें अहिंसा का व्यापक रीत से परिचय दिया गया इससे अहिंसा का स्वरूप भली-भांति समझ सकते हैं ।
जैन धर्म परंपरा हिंसा का दो पक्षों से विचार करती है । एक हिंसा का बाह्य पक्ष है, जिसे जैन पारिभाषिक शब्दावली में द्रव्यहिंसा कहा गया है। द्रव्यहिंसा स्थूल एवं बाह्य घटना है। यह एक क्रिया है, जिसे प्राणातिपात, प्राणवध, प्राणहनन, मारना - ताडना आदि नामों से जाना जाता है। भाव-हिंसा हिंसा का विचार है, यह मानसिक अवस्था है, जो प्रमादजन्य है। रागादि कषाय का अभाव अहिंसा है और उनका उत्पन्न होना ही हिंसा है । तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार राग, द्वेष आदि कषायों और प्रमादवश किया जानेवाला प्राण-वध हिंसा है।
जैन-दर्शनमें इसी आधार पर सूक्ष्म रूप से हिंसा के चार रूप माने गये
हैं :
१) संकल्पजा (संकल्पी) हिंसा अर्थात् संकल्प या विचारपूर्वक हिंसा करना। यह आक्रमणात्मक हिंसा है ।
२) विरोधजा हिंसा स्वयं और दूसरे लोंगो के जीवन एवं सत्त्वों ( अधिकारों) के रक्षण के लिए विवशतावश हिंसा करना । यह सुरक्षात्मक हिंसा
है।
જ્ઞાનધારા
३) उद्योगजा हिंसा
के निमित्त होनेवाली हिंसा । यह उपार्जनात्मक हिंसा है।
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आजीविका - उपार्जन अर्थात् उद्योग एवं व्यवसाय
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જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨
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