Book Title: Gyandhara
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
View full book text
________________
ही जाता है। क्या हम किसी ऐसे समाज की कल्पना पर सकते हैं जहां सभी हिंसा से ग्रस्त हैं ? वहाँ किसी प्रकार की शान्ति संभव ही नहीं है। वह तो जंगल का राज्य है। कुछ व्यक्ति कहते है कि जीवो जीवस्य भोजनम् अर्थात् एक जीव दूसरे जीव का भोजन है लेकिन यह सिद्धांत भी सही नहीं है । वास्तव में सभी जीव एक दूसरे के सहयोग से ही जीवित रहते हैं, विकास पाते हैं। जब जीव एक दूसरे को परस्पर सहयोग, प्रेम एवं करुणा प्रदान करते हैं तब यह पृथ्वी सबके लिए सुखकारी हो जाती है । अतएव अहिंसा का सिद्धांत आज भी सभी समस्याओं का एक व्यावहारिक एवं प्रभावशाली समाधान है ।
जैन धर्म के अनुसार हिंसा का कारण कषाय एवं प्रमाद है। भगवान् महावीर ने कहा, “क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार दुर्गुण पाप की वृद्धि करने वाले हैं। जो अपनी आत्मा की भलाई चाहते हैं, उन्हें इन दोषों का परित्याग कर देना चाहिए ।" इसी प्रकार प्रमाद भी हिंसा का बहुत बड़ा कारण है। प्रमाद पाँच प्रकार के हैं - मद्य ( शराब पीना), विषय ( काम भोग), कषाय और विकथा ( अर्थहीन, रागद्वेषवर्द्धक वार्ता ) जैन धर्म में इसलिए भाव हिंसा अर्थात् मानसिक हिंसा से भी विरत करने का कहा गया। मानसिक हिंसा सबसे भयंकर है।
व्यावहारिक जीव में अहिंसा :
एक गृहस्थ के लिए अहिंसा का पूर्णता से पालन करना संभव नहीं है । अत: जैन आचार्यों ने हिंसात्मक गतिविधियों के दो भाग किये - १) कुछ जिन्हें पूर्णता से त्यागना चाहिए और २) कुछ जिन्हें आंशिक रूप से त्यागना चाहिये । पुनः हिंसा का चार भागों में वर्गीकरण किया गया :
१) संकल्पी हिंसा : जान बूझकर प्राणियों की हिंसा करना जैसे सांडों की लड़ाई
२) आरम्भी हिंसा : गृहस्थी को चलाने के लिए जिस हिंसा से बचना संभव नहीं है जैसे घर की सफाई या भोजन बनाने में किसी जीव की अनजान में हिंसा
३) उद्योगी : आजीविका के लिए अर्थात् उद्योग या व्यापार चलाने में या
જ્ઞાનધારા
Jain Education International
२३०
For Private & Personal Use Only
જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨
www.jainelibrary.org