Book Title: Gyandhara
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
View full book text
________________
भी रक्षा
नष्ट करना, भूना कारण है। आपकी रक्षा
मनुष्यों या पशुओं तक ही सीमित नहीं है, किन्तु इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है। जैन धर्म मानता है वनस्पति में भी जीव है। यहाँ तक कि पृथ्वी, अग्नि, जल एवं वायु में भी अदृश्य जीव हैं, जिन्हें एकेन्द्रिय जीव कहते हैं। अतः उनकी भी रक्षा की जानी चाहिए। अत : जैन धर्म के अनुसार वृक्षों को काटना या वनस्पति को नष्ट करना, भूमि को अनावश्यक खोदना, जल का अनावश्यक बड़ी मात्रा में उपयोग हिंसा का कारण है। आज पर्यावरण वैज्ञानिक एवं वन्यजन्तु विशेषज्ञ भी कहते हैं कि जंगली जानवरों की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि वे प्रकृति का संतुलन बनाने में सहायक हैं। प्रत्येक जीव का, चाहे वह छोटी सी चींटी हो या वृहद्काय हाथी, प्रकृति की सुरक्षा में महत्त्व है। आज वनस्पति के रक्षण, नदियों को प्रदूषण से बचाने एवं पृथ्वी की संपदा की रक्षा के लिए आंदोलन चल रहे हैं। इस प्रकार तीर्थंकरों ने हजारों वर्ष पहले प्राणी-रक्षा पर जो जोर दिया था, उसी का समर्थन आज के वैज्ञानिक कर रहे
हैं।
प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व :
विश्व के सभी प्राणियों को प्रकृति के साथ सौहार्दपूर्ण सम्बध बनाना चाहिये। तत्त्वार्थ-सूत्र में आचार्य उमास्वाति ने कहा, “परस्परोपग्रहो जीवानाम्' अर्थात् संसार के सभी प्राणी एक दूसरे को सहयोग प्रदान करते हैं। वे एक. दूसरे से अलग नहीं रह सकते। उनको एक दूसरे के सुख-दुःख को समझ कर उसमें सहभागी बनना चाहिये। दुर्भाग्य से आज का मनुष्य अपने आप को सर्वश्रेष्ठ जीव मानता है और वह प्रकृति की सभी शक्तियों पर नियन्त्रण करना चाहता है। यह एक भ्रामक धारणा है। मनुष्य को जीवित रहने में वनस्पति, नदियां, पहाड, जीव-जन्तु इत्यादि उसकी मदद करते हैं अतः अगर मनुष्य जीवन में शान्ति एवं आनन्द चाहता है तो उसे उन सभी की रक्षा करनी चाहिये तथा उनको शोषण से बचाना चाहिये। ___ जैन धर्म सिद्धांत के अनुसार हिंसा जीव के बंधन का मुख्य कारण है, इससे आत्मा की शक्तियां क्षीण होती हैं तथा मनुष्य राग एवं द्वेष से ग्रसित होकर पतन को प्राप्त होता है। परिणामस्वरूप जन्म एवं मरण का चक्र बढ़ता
શનિવાર
(२२९
જૈિનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org