Book Title: Gyandhara
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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दिया गया है। क्योंकि अन्तर की कलुषता ही हिंसा को जन्म देती है। इसी बात को आचार्य उमास्वामी ने इस कथन से स्पष्ट किया है
प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा। प्रमादवश प्राणों के घात करने को हिंसा कहते हैं। प्रमत्त शब्द मन की कलुषता, अज्ञानता, असावधानी के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। गृहस्थ जीवन में मनुष्य नाना क्रियाओं का प्रतिपादन करता है। किन्तु सभी क्रियाएं सावधानी
और संयमपूर्वक नहीं होतीं। अनेक कार्यों को करते हुए मन में कषायभाव, कटुता उत्पन्न हो जाती है। इससे आत्मा की निर्मलता धुंधली पड़ जाती है। भावनाओं में विकार उत्पन्न हो जाते हैं। इन्हीं दुषरिणामों से युक्त होकर कोई कार्य करना हिंसा है। क्योंकि दुष्परिणामी व्यक्ति के द्वारा भले दूसरे प्राणियों का घात न हो लेकिन उसकी आत्मा का घात स्वयमेव हो जाता है। इसी अर्थ में वह हिंसक है। क्योंकि किसी दूसरे से किसी दूसरे का प्राण-घात सम्भव ही नहीं है। ____ पं. आशाधरजी ने हिंसा की व्याख्या और सरल शब्दों में की है। उनका कथन है- संकल्पपूर्वक व्यक्ति को हिंसात्मक कार्य नहीं करना चाहिए। उन सब कार्यों व साधनों को, जिनसे शरीर द्वारा हिंसा, हिंसा की प्रेरणा वा अनुमोदन सम्भव हो, यत्नपूर्वक व्यक्ति को छोड़ देना चाहिए। यदि वह गृहस्थ जीवन में उन कार्यों को नहीं छोड़ सकता तो उसे प्रत्येक कार्य को करते समय सतर्क और सावधान करना चाहिए। देवता, अतिथि, मन्त्र, औषधि आदि के निमित्त तथा अन्धविश्वास और धर्म के पर संकल्पपूर्वक प्राणियों का घात नहीं करना चाहिए। क्योंकि अयत्नाचार पूर्वक की गई क्रिया में जीव मरे या न मरे हिंसा हो ही जाती है। जब कि यलाचार से कार्य कर रहे व्यक्ति को प्राणिवध हो जाने पर भी हिंसक नहीं कहा जाता। वस्तुत: हिंसा करने और हिंसा हो जाने में बहुत अन्तर है। निष्कर्ष यह, संकल्प-पूर्वक किया गया प्राणियों का घात हिंसा है, और उनकी रक्षा एवं बचाव करना अहिंसा।
जैन-साहित्य में अहिंसा के प्रतिपादन में बहुत कुछ कहा गया है। इसमें ... प्रधानतः प्राणीमात्र के कल्याण की भावना निहित है। अन्य धर्म व संस्कृतियां
(જ્ઞાનધારા
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જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨
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