________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञानप्रद पिका।
जिस नक्षत्र में चन्द्रमा हो वहां पर शल्य कहना चाहिये। उदय नक्षाादिक का न्यास २८ अठ्ठाइसों कोष्ठ में रखना चाहिये ।
गणयेच्चन्द्रनक्षत्रं तत्र शल्यं प्रकोर्तितम् । शंकास्ति शल्यविस्तारयामावन्योन्यताडितम् ॥६॥ विंशत्यापहृतं षष्ठमरनिरिति कीर्तितम् । वहां पर चन्द्रमा के नक्षत्र तक गणना करके शल्य का निर्देश करना चाहिये। इस रीति से जितने कोष्ठ के भातर शल्य की शंका हो उसको लंबाई चौड़ाई का परस्पर गुणा करके बीस से भाग देकर फिर से भाग देना उसको संज्ञा कही गई है।
रनिर्माणत्वा नवभिर्नीलाता (१) तालमुच्यते । तत् प्रदेशं प्रगुण्यान्तैहित्वा विंशतिभिर्यदि ॥७॥
शेषमंगुलमेवोक्तं रत्नप्रादेशमंगुलम् । - एवं क्रमेण रल्यादिमगद कथयेत्तथा ॥८॥
त्नि को नव से गुणा कर तोल से भाग देना उसकी ताल संज्ञा कही गई है इस रोति से उस प्रदेश में शब्द का निर्देश करना चाहिये। उन उन प्रदेशों को तत्तत अंकों से गुणा कर बीस से भाग देने म शेष अंगुल दिक हाता है इस तरह रत्नी तुल्य वित्ता वश और अंगुल का विचार करना इसी तर इत्यादिक के उस भूमि का शोधन कहा गया है।
केन्द्रेषु पापयुक्नेषु पृष्टं शल्यं न दृश्यते ।
शुभग्रहयुतेष्वेषु शल्यं तत्र प्रजायते ॥६॥ प्रश्नकर्ता के प्रश्न समय केन्द्रों में पाप ग्रह का योग हो तो हड़ा ( शल्य ) होते हुए भी दीख नहीं पड़ेगा-यदि शुभ ग्रह का योगादिक हो तो वहां पर शल्य होता और मिलता है
पापसौम्ययुने केन्द्रे शल्यनस्तीति निर्दिशेत् । शनिः पश्यति चेद्दवं कुजश्चेत् प्राहुराक्षसान् ॥१०॥ केन्द्रे चन्द्रारसहिते कुजनक्षत्रकोष्ठके। श्वशल्यं (?) विद्यते तत्र केन्द्र शुक्रन्दुसंयुते ॥११॥
For Private and Personal Use Only