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आलोच्य कविता का सामूहिक परिवेश
धम्मो मंगलकुविकटं, अहिंसा संजमो तवो। . .
देवावि तं नमसंति, जस्स धम्मे सपामणो' जैन धर्म सभी प्राणियों के सुख पूर्वक जीने के अधिकार को स्वीकार करता है । सभी प्राणियों को जीवन प्रिय है, सुख अच्छा लगता है, दुःख प्रतिकूल है । इस वात को आचारांग सूत्र में इस प्रकार कहा गया है-- सच्चे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला ।'
(अ० १, उद्देश्य २, गा० ३) अहिंसा जैन धर्म का प्राण है । यद्यपि सभी धार्मिक परम्पराओं में अहिंसा तत्त्व को न्यूनाधिक रूप में स्वीकार किया है, पर जैन धर्म ने इस तत्त्व पर जितना वल दिया है और उसे जितना व्यापक बनाया है, अन्य परम्पराओं में न तो इतना बल ही दिया गया है और न उसे इतने व्यापक रूप से स्वीकार ही किया है । जो लोग आत्मसुख के लिए किसी भी जीव की हत्या करते हैं या उसे कष्ट पहुंचाते हैं, वे सभी अज्ञान और मोह में फंसे हैं। उन्हें अपने किये का फल भोगना पड़ता है। परमेश्वर या अन्य कोई व्यक्ति अपने किये कर्मों के परिणाम से मुक्ति नहीं दिला • सकता।
जैन धर्म ने स्वावलंबन पर जोर दिया है । कोई भी जीव स्वयं उकान्ति कर सकता है। कोई स्थान किसी जाति या व्यक्ति विशेष के लिए निश्चित और अन्य के लिए वजित नहीं है।
जैन दर्शन में दुःख का प्रमुख कारण कर्म माना गया है। भात्मा कर्म के आवरण से आवेष्टित हो जाती है अतः मानव सच्चे सुख का रास्ता भूल जाता है और शरीर के प्रति उसका महत्त्व बढ़ जाता है । वह शारीरिक सुखों को ही महत्त्व देता हुआ भ्रम में फंसा रहता है। अपने सुख के लिए दूसरों को कण्ट देने लगता है। दूसरों को दुःख देने से कोई सुखी नहीं बनता । जैन दर्शन के अनुसार दूसरों को दुःखी बना कर सुख प्राप्ति का प्रयत्न अज्ञान मूलक एवं अनौचित्यपूर्ण है । इस अज्ञान के कारण मानव के दुःखों में तो वृद्धि होती ही है, जन्म-मरण की अवधि भी बढ़ जाती है । अतः आत्मा को कर्म के बन्धन से मुक्त करना आवश्यक है । कर्म-आवरण से अलिप्त आत्मा में प्रसुप्त शक्तियां जाग्रत हो उठती हैं, तभी मनुष्य सच्चे सुख का स्वरूप पहचान कर शारीरिक सुख-दुःखों में विवेक करना सीखता है । अज्ञान, तृष्णा तथा कपायों द्वारा निर्मित दुःख से मुक्त हो अन्यों द्वारा दिये हुए दुःखों को धैर्यपूर्वक सहन करने की शक्ति पा लेता है । वह दुःखों से विह्वल या क्षुब्ध नहीं बनता। १. दशवकालिक सून-अध्याय १, गा० १ - २. आचारांग सूत्र-मध्याय १, उद्देश्य २, गा०३ .