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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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"मारग चलत-चलत गात, आनन्दघन प्यारे, रहन आनन्द भरपूर ॥ ताको सरूप भूप त्रिहुं लोक थे न्यारो, बरखत मुख पर नूर ।। सुमति सखि सखि के संग, नित-नित दोरत, कवहुं न होत ही दूर ।। जशविजय कहे सुनो आनन्दघन, हम तुम मिले हजूर ।"
यानन्दघन आनन्दरूप हैं। उन्हें पहचानने के लिए ज्ञाता के चित में उसी आनन्द की अनुभूति का होना आवश्यक है
"आनन्द की गत आनन्दघन जाने । वाइ सुख सहज अचल अलख पद, वा मुख सुजस बखाने । सुजस विलास जव प्रकटे आनन्दरस, आनन्द अखय खजाने । ऐसी दशा जब प्रगटे चित अन्तर, सोहि आनन्दघन पिछाने ॥"
'दिक्पट चौरासी वोल' हेमराज के 'सितपट चौरासी वोल' के उत्तर में तथा बनारसीदास के पंथ के विरोध में रची गई कृति है। इस कृति में दिगम्बरी मान्यताओं का खण्डन है। यदि खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति में ये न पड़े होते तो शायद हेमचन्द्राचार्य से भी महान सिद्ध होते । 'समाधिशतक' में दिगम्बर प्रभावन्दमूरि के 'समाधिशतक-समाधितन्त्र' नामक १०० श्लोकों के उत्तम ग्रंथ का गब्दानुवाद दिया गया है। इसमें स्थिर संतोष को ही मुक्ति का साधन माना है-'मुक्ति दूर ताकू नहीं, जाकू स्थिर संतोप ।' 'समता शतक' कवि की चौथी हिन्दी कृति है जिसमें १०५ पद्य हैं। इसकी रचना विजयसिंहसरि के 'साम्य शतक' के आधार पर मुनि हेम विजय के लिए लिखी गई थी। इसमें इन्द्रियों पर विजय पाने के उपाय बताए गए हैं । अन्य संत कवियों की भांति इन्होंने माया को सर्पिणी के रूप में चिचित्र किया है जो देखने में मधुर पर गति से वक्र और भयंकर है
"कोमलता वाहिर घरतु, करत वक्र गति चार ।
माया सापिणी जग डरे, ग्रसे सकल गुण सार ।" स्तवन, गीत, पद एवं स्तुतियों के इस संकलन 'जसविलास' में भक्ति, वैराग्य और विश्वप्रेम के १०० पद संकलित हैं। भक्त का प्रभु के ध्यान में मग्न होना ही वस्तुतः सभी दुविधा का अंत है। भक्तिरूपी निधि प्राप्त करने के पश्चात् भक्त के लिए हरि-हर और ब्रह्मा की निधियां भी तुच्छ लगने लगती हैं, उस रस के आगे अन्य सभी रस फीके लगने लगते हैं; खुले मेदान में माया, मोह रूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त हो जाती है
"हम मगन भए प्रभु ध्यान में । विसर गई दुविधा तन-मन की, मचिरा सुत गुन ज्ञान में ।