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जैन गूर्जर कवियो की हिन्दी कविता
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उतार कर निर्वेद की लहरियों में बहने लगता है। प्रथम पिता की मृत्यु से निर्वेद भावना का विकास होता है
"तात कु निधन सुनत दुख पायु, मन मांहि इ साचु विराग ऊपायु ॥ धिग संसार असार विपाकिइं, होति युविकल न रह्य मोह वाकिई ।।"१७३
स्थूलिभद्र संयम धारण कर लेते हैं, कोश्या को नींद नहीं आती । वार-वार त्रिय की स्मृतियां उभर आती हैं और उसे सारा संसार ही प्रियतम मय दिखने लगता है
"सब जग तुझ मय हो रह्या, तो ही सुवांच्या प्रान ॥१६०॥" यहां लौकिक प्रेम ब्रह्म मय हो जाता है। यह ब्रह्म और जीव की तादात्म्य स्थिति है। अन्त में शांत रस की स्निग्ध धारा अपनी आत्मरति और ब्रह्म-रति से शृगार को प्रच्छन्न कर देती है।।
विनयचंद्र प्रणीत 'थूलिभद्र बारहमासा'१ कृति में प्रायः सभी रसों का सुन्दर नियोजन हुआ है। प्रत्येक रस का एक-एक उदाहरण द्रष्टव्य है
शृङ्गार : "आपाढ़इ आशा फली, कोशा करइ सिणगारो जी। आवउ लिभद्र वालहा, प्रियुडा करू मनोहारोजी ।। मनोहार सार शृङ्गार-रसमां, अनुभवी थया तरवरा । वेलडी वनिता लाइ आलिंगन, भूमि भामिनी जलधारा॥"
हास्य :
"श्रावण हास्य रसइं करी, विलसउ प्रतिम प्रेमइ जी । योगी ! भोगी नइ धरे, आवण लागा केमइ जी ।। त: केम आवै मन सुहावै, वसी प्रमदा प्रीतडी । एम हासी चित्त विभासी, जोमउ जगति किसी जडी ॥"
करुण : "झरहरइ पावस मेघ बरसइ, नयण तिम मुख आंसुआं। तिम मलिन रूपी वाह्य दीसउ, तिम मलिन अन्तर हुआ ॥१॥ भादउ कादउ मचि राउ, कलिण कल्या बहु लोकोजी । देखी करुणा ऊपजै, चन्द्रकान्ता जिम कोको जी ।। कोक परि विहू बोक करती, विरह कलणइ हुं कली।
काढियइ तिहां थी वाह झाली, करुणा रसनइ अटकली ॥" १. विनयचंद्र कृति कुसुमांजलि, संपा० भंवरलाल नाहटा, पृ० ८०-८४ ।
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