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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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कम से कम जगत् में इतना तो यश ले लो। सेवक अवगुणों से भरा हुआ है, फिर भी उसे अपना समझ कर हे दयानिधि इस दीन पर दया करो।"१ लवुता और स्व-दोषों का उल्लेख
भक्त हृदय में आराध्य की महत्ता के अनुभव के साथ दीनता और लघुता का आभास होता ही है। इस तरह की अनुभूति सात्विक ही है। लघुता एवं स्व-दोष वर्णन पूरित आत्म-निवेदन अहंकार को नष्ट कर विनय भाव को जगता है । तुलसीदास की विनय पत्रिका इसका उज्ज्वल प्रमाण है । इन कवियों ने भी इस प्रकार की अनुभूति अभिव्यक्त की है। महात्मा आनन्दघन का हृदय अपनी लघुता में ही रमा है। भक्त प्रेमिका बनकर आराध्य के आने की प्रतीक्षा करता हुआ कहता है-"मैं रात-दिन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ, प्रभु तुम कब घर आओगे। तुम्हारे लिए तो मेरे जैसे लाखों हैं, परन्तु मेरे लिए तो तुम एक ही हो। जोहरी लाल का मूल्य आंक सकता है, किन्तु मेरा लाल तो मूल्यातीत है। जिसके समान दूसरा कोई नहीं, उसका मूल्य भी कैसे हो सकता है।"२ महात्मा आनन्दघन ने लता, स्वदोष-वर्णन, आत्मनिवेदन, दासता, उपालंभ आदि के भाव एक साथ संजोये है। कवि ने प्रेम भक्ति के आवेश में
प्रभु को मीठी चुनौती दी है-उन्होंने कहा है, "प्रभु तुम पतित उद्धारक होने का दावा -- करते हो, यह क्या. सच है ..या नशा पीकर . कहते हो.? कारण कि अब तक मेरे जैसे पानी का बिना उद्धार किये इस प्रकार का विरुद कैसे प्राप्त कर सकते हो । मुझ क्रूर, कुटिल और कामी का उद्धार करो तव ही पतित उद्धारक के विरुद को सत्य मान मकता हूँ। आपने अनेक पतितों का उद्धार किया होगा पर मेरे मन तो आप बिना करनी के ही कर्ता बन बैठे हो। एकाध का तो नाम बताओ, झूठे विरुद धरने से क्या होता है। आगे और बताते है-निटप अज्ञानी पापी और अपराधी यह दास है, अब अपनी लाज रखकर तथा समझकर इसे सुधार लो। ".... हे प्रभु जो बात बीत गई सो बीत गई, अब ऐसा न कर इस दास के उद्धार में तनिक भी देर न करो। १. तार हो तार प्रभु मुझ सेवक भणी, जगतमां एटलु सुजस लीजे ।
दाम अवगुण भर्यो जाणी पोतातणो, दयानिधि दीन पर दया कीजे ।।"
___-~श्रीमद् देवचंद्र, चौवीसी, प्रस्तुत प्रबंध का तीसरा प्रकरण । २. निश दिन जोऊ तारी वाटड़ी, घरे आवो रे ढोला ।
मुझ सरिखा तुज लाल है, मेरे तुम्ही अमोला ||१|| जव्हरी मोल करे लाल का, मेरा लाल अमोला। . ज्याके पटन्तर को नहीं, उसका क्या मोला ॥२॥
-आनन्दघन पद संग्रह, पद १६, पृ० ३७ ।