Book Title: Gurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Author(s): Hariprasad G Shastri
Publisher: Jawahar Pustakalaya Mathura

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Page 333
________________ ३३१ जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता ये कवि भी भक्ति, अध्यात्म, नीति आदि की प्रस्थापना द्वारा अपनी कविता में सांस्कृतिक पुनरुत्थान की चेतना भरते रहे । हिन्दी के रीतिकाल के प्रायः सभी कवियों ने शृंगार और विलास की मदिरा से ही अपने काव्य रस को पुष्ट किया । परिणाम स्वरूप भारत अपने कर्तव्यों और और आदर्श चरित्रों को भूलने लगा और उनमें रही सही शक्ति एवं ओज भी नष्ट होने लगा। ये कवि कामिनी के कटाक्षों की सीमा से बाहर निकल ही नहीं पाये और इनका विलास भारत के पतन में सहायक हुआ, इनकी शृंगार-साधना ने जनता के मनोबल को नष्ट करने में जहर का काम किया। साहित्य का मूल लक्ष्य तो मानव मात्र में सच्चरित्रता, संयम, कर्तव्यशीलता और वीरत्व की वृद्धि करना है, उसके मनोवल को पुष्ट करना है तथा उसे पवित्र एवं आदर्शोन्मुख करना है । प्राणी मात्र को देवत्व और मुक्ति की ओर ले जाना ही काव्य का चरम लक्ष्य है, विनोद तो गौण साधन है। इन कवियों ने इस घोर शृगारी युग में भी अपने को तथा अपनी अभिव्यक्ति को इससे सर्वथा विमुख रखा और अपनी अपूर्व जितेन्द्रियता और सच्चरित्रता का परिचय दिया। इनका लक्ष्य मानव की चरम उन्नति ही रहा । ये पवित्र लोकोद्धार की भावना लेकर साहित्यक्षेत्र में अवतीर्ण हुए और इस कार्य में इन्हें पूर्ण सफलता मिली है। जैन साधक देशकाल एवं तज्जन्य परिस्थितियों के प्रति सदैव जागरूक रहे हैं । वे आध्यात्मिक परम्परा के अनुगामी एवं आत्मलक्षी संस्कृति में विश्वास रखते हुए भी लौकिक चेतना से विमुख नहीं थे। क्योंकि इनका आध्यात्मवाद वैयक्तिक होते हुए भी जनकल्याण की भावना से अनुप्राणित है। यही कारण है कि सम्प्रदाय मूलक साहित्य के सर्जन के साथ साथ भी ये कवि अपनी रचनाओं में देशकाल से सम्बन्धित ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पक्षों का निरूपण करते रहे है जिसमें भारत की सांस्कृतिक परम्परा और उसकी उदारता, समता, एकता एवं समन्वयकारिता सदैव प्रवल रही। इन रचनाओं में औपदेशिक वृत्ति के साथ विषयान्तर से परम्परागत वातों के विवरण भी आये हैं, अतः सम्पूर्ण काव्य पिष्टपेषण मात्र नहीं हैं । यह साहित्य लोकपक्ष एवं भाषापक्ष की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस कविता में भारतीय चितना की आदर्श, संस्थापक, नैतिक एवं धार्मिक मान्यताओं को जनभाषा में समन्वित कर राष्ट्र के आध्यात्मिक स्तर को पुष्ट वनाने के अपूर्व प्रयत्नों द्वारा धर्ममूलक थाती की रक्षा हुई। संस्कृत की सच्ची उत्तराधिकारिणी एवं राष्ट्रव्यापी भाषा हिन्दी को अपनाकर भी इन कवियों ने अपनी सांस्कृतिक गरिमा का परिचय दिया है साथ ही इन कवियों के द्वारा भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं को वहन करने वाली हिन्दी भाषा को सदैव ही एक राष्ट्रीय रूप प्रदान होता रहा ।

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