Book Title: Gurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Author(s): Hariprasad G Shastri
Publisher: Jawahar Pustakalaya Mathura

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Page 334
________________ ३३२ आलोचना-खंड उपसंहार अब तक के समस्त विश्लेषण- विवेचन से हम इस निष्कर्ष तक आ चुके है कि आलोच्ययुगीन जैन गूर्जर कवियों की कविता सम्प्रदायवादी जैन धर्माचार्यों व धर्मगुरुओं द्वारा रचित होने पर भी अपनी मूल प्रकृति से विशुद्ध असम्प्रदायवादी ही है अतः उपेक्षणीय नहीं है । इसका महत्व दो रूपों में आंकलित किया जा चुका है— (१) आलोच्य काव्य अनुभूति की दृष्टि से भक्तिकालीन काव्य के समकक्ष रखा जा सकता है अथवा उसकी धारा का ही एक विस्तार माना जा सकता है, तथा (२) शैली, भाषा व संगीतात्मकता की दृष्टि से प्रस्तुत काव्य का अपना एक सुनिश्चित स्थान है जो, यद्यपि हिन्दी साहित्य में अब तक उसे प्राप्त नहीं हुआ है, प्राप्त होना चाहिए । को प्रकाश में इस दिशा में का क्षेत्र पर्याप्त मात्रा में उर्वर यद्यपि अंचलपरक इस प्रकार के एक-दो शोधप्रबन्ध उक्त कार्य के लिए तथा सम्प्रति भारतीय वातावरण में राष्ट्रीय एकता, साम्प्रदायिक सद्भाव व भारत की अक्षुण्ण निर्विकल्प सांस्कृतिक भाव-धारा के पूर्ण रूप लाने के हेतु अपूर्ण ही माने जायेंगे किन्तु इस प्रकार के प्रयत्नों से बढ़ने वालों को सम्वल अवश्य मिल सकेगा । इस प्रकार के शोधकार्य है क्यों कि अनेकानेक कृतियां अभी तक, संभवतः, सूर्य के दर्शन करने में असमर्थ हैं और पड़ी पड़ी किसी कार्यशील जिज्ञासु शोवार्थी की प्रतीक्षा में घुटन का अनुभव कर रही हैं । हम, साहित्य के विद्यार्थी, यदि इस प्रकार के अज्ञात साहित्य का मूल्यांकन किसी साहित्येतर - सांस्कृतिक राजनीतिक आदि - मानदण्डों के आधार पर न भी करना चाहें तो भी इस प्रकार के साहित्य से विस्तृत फलक पर हिन्दी साहित्य के इतिहास के पुनर्निमाण की संभावनाओं का द्वार तो उद्घाटित होता ही है । इत्यलम्

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