Book Title: Gurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Author(s): Hariprasad G Shastri
Publisher: Jawahar Pustakalaya Mathura

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Page 306
________________ ३०४ आलोचना-दंड किशनदास : उपदेश बावनी। केशवदास केशवदास बावनी। जिनहर्ष जसराज वावनी तथा दोहा मातृका वावनी । लक्ष्मीवल्लभ : दोहा वावनी तथा सवैया वावनी । धर्मवर्धन धर्म वावनी, कुण्डलिया वावनी तथा छप्पय वावनी । निहालचन्द : ब्रह्म वावनी । लालचन्द वैराग्य बावनी। श्रीसार : सार बावनी। हीरानन्द : अध्यात्म बावनी। हंसराज जान बावनी। वहोत्तरी और शतक संज्ञक रचनाएँ भी इन कवियों ने लिखी हैं । इस दृष्टि से आनन्दघन की 'आनन्दघन वहोत्तरी', जिनहर्ष की नंद वहोत्तरी', यशोविजय की 'समाधि शतक' तथा 'समताशतक' और दयासागर की 'मदन शतक' आदि कृतियां उल्लेखनीय है। (५) पर्व, ऋतु, मास आदि की दृष्टि से फाग या फागु : रास काव्य-रूप की भांति ही फागु भी बड़ा महत्वपूर्ण एवं बहु चचित काव्यरूप है । इसे रास का ही दूसरा साहित्यिक रूप कहा जा सकता है। रास को महाकाव्य की कोटि में रखें तो फागु को खण्डकाव्य या गीतिकाव्य की कोटि में रखा जा सकता है। ___ फाग या फागु के लिए संस्कृत का मूल शब्द 'फल्गु' है, प्राकृत में फग्गु, गुजराती में फागु तथा ब्रज एवं हिन्दी में फगुवा या फाग शब्द व्यवहृत हुआ । संस्कृत के ऋतु काव्यों की तरह इनमें भी ऋतुवर्णन की प्रधानता है। फाल्गुन और चैत्र महीनों में अनंग पूजा, वसन्त महोत्सव आदि के अर्थ रचित स्वागत गीत, उल्लास चित्रण तथा आह लादकारी गान ही फागु हैं। इनमें जीवन की ऊष्मा है, उत्साह का उन्मेष है। __ संस्कृत के पश्चात् अपभ्रंश के रास युग में फागु की परम्परा का प्रारम्भ माना जा सकता है । यही कारण है कि रास और फागु की शिल्पगत विशेषाएं लगभग समान-सी लगती हैं। काव्यान्तर में यह राम से छोटा होता गया, और अधिक कलात्मक एवं कोमल रूप ग्रहण करता गया। निश्चय ही फागु काव्य गेय रूपक है,

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