Book Title: Gurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Author(s): Hariprasad G Shastri
Publisher: Jawahar Pustakalaya Mathura

View full book text
Previous | Next

Page 300
________________ २६८ आलोचना-खंड 'लखपति पिंगल' (कवि रहस्य) तथा 'गौड़ पिंगल' ग्रंथ ब्रजभाषा में रचित छन्द-शास्त्र के मथ हैं। (२) राग और नृत्य की दृष्टि से विवाहलो-मंगल : इस युग के कवियों के कुछ आल्यानक काव्यों में चरितनायकों के विवाह के मंगल प्रसंग के वर्णन मी मिलते हैं। इनमें तत्कालीन, विवाह संबंधी रीति-रिवाजों का अच्छा परिचय मिल जाता है। जैन कवियों ने विवाह प्रसंग का वर्णन करने वाले कुछ स्वतंत्र काव्य भी लिखे हैं । इस प्रकार के काव्य लिखने की परम्परा करीव १४वीं शताब्दी से प्राप्त होती है। जिनमें विवाह का वर्णन हो, ऐसी रचनाओं को 'विवाहला' संज्ञा दी गई है। जैन कवियों ने विवाह प्रसग को तत्वज्ञान की दृष्टि से समझाया है। जैन परिभाषा की दृष्टि से यह भाव-विवाह है। इन्होंने नेमिनाथ, ऋषभ आदि तीर्थंकरों और जैनाचार्यों का विवाह 'संयम श्री' के साथ करने के प्रसंग को लेकर 'विवाहले' रचे हैं। इस दृष्टि से ऐसे काव्य सुन्दर रूपक काव्य बन गये हैं। जैन साधु-जैनाचार्य आदि ब्रह्मचारी रहते थे, अत: उनके लौकिक विवाह का तो प्रश्न ही नहीं था। इनके द्वारा ग्रहण किये गए व्रत ही संयमश्री रूपी कन्या माने गये हैं और उसी के साथ इनके विवाह के वर्णन ऐसे काव्यों में गूथे गये हैं। ये आध्यात्मिक विवाह हैं। इस प्रकार के यह रूपक-विवाह जैन कवियों की अनोखी सूझ कही जा सकती है । ' __ आलोच्य युगीन जैन-गूर्जर कवियों ने इस प्रकार के विवाह के प्रसंग अपनी अन्यान्य रचनाओं में अवश्य गूथे हैं पर 'विवाहला' संना से इनकी रचनाएं कम ही प्राप्त होती हैं। कवि कुमुदचन्द्र की एक मात्र कृति 'आदिनाथ (ऋषभ) विवाहलो' प्राप्त है, जो इसी प्रकार का आध्यात्मिक रूपक-काव्य है। इसमें कवि ने अपने आराध्य देव का दीक्षाकुमारी, संयमश्री अथवा मुक्तिवघू से वरण दिखाया है। इसमें ११ ढालों का सुनियोजन हुआ है। ऐसे विवाहले भक्ति भाव पूर्वक गाये तथा खेले भी जाते रहे हैं। संवत् १३३१ के पश्चात् रचित 'श्री जिनेश्वरसूरि वीवाहलां' में इसका उल्लेख भी मिलता है 'एहु वीवाहलउ जे पढ़इ, जे दियहि खेला खेली रंग भरे। ताह जिणेसर सूरि सुपसन्नु, इस मणइ भविय गणि 'सोम मुति' ॥३३॥'१ ( अर्थात् इस विवाहला को पढ़ने वाले पर, लिखवा कर दान करने वाले पर तथा रस-रंग पूर्वक खेलने वाले पर गुरु प्रसन्न होते हैं । ) १. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ३८३ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353