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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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निष्कर्ष
आलोच्य युग के जन-गूर्जर-कवियों की हिन्दी कविता के वस्तुपक्ष का अध्ययन करने के पश्चात् सारांशतः हम निम्न निष्कर्ष निकाल सकते हैं
(१) इन कवियों ने शांतरस को रसराज स्वीकार किया है । यद्यपि इनकी कविता में सभी रसों का नियोजन अंगरूप में यथाप्रसंग सफलता से हुआ है, पर ये रस प्रधान शांतरस की क्रोड में ही वणित है। शतरस को रसराजत्व देना जैनों के अध्यात्म सिद्धान्तों के अनुकूल है।
(२) इनकी कविता का मूलाघर आत्मानुभूति है। यही कारण है कि यहां पार्थिव तथा ऐन्द्रिय सौन्दर्य के प्रति आकर्षण नहीं।
(३) वासना के स्थान पर विशुद्ध प्रेम को अपनाया गया है ।
(४) भक्तिभावना शांत, माधुर्य, वात्सल्य, सख्य, विनय आदि भावधाराओं में अभिव्यक्त हुई है, जिसमें नवधाभक्ति के अधिकांग तत्व समाहित है।
(५) इनकी कविता में गुरु का महत्वपूर्ण स्थान है । यहां गुरु और ब्रह्म में भेद नहीं है । गुरुभक्ति में अनुराग का विशेष महत्व है। परिणामतः गुरु के मिलन और विरह दोनों के गीत गाये गये हैं।
(६) इनकी कविता में रागात्मिका प्रवृत्ति को उदात्त एवं परिष्कृत करने का . तथा जीवनोन्नयन के लिए तत्वज्ञान के आश्रय को स्वीकार करने का मूल आदर्श ध्वनित है । इसमें आत्मा की सच्ची पुकार है तथा स्वस्थ जीवन दर्शन है।
(७) मानव मात्र में स्फूर्ति एवं उत्साह पैदा करना, उसके निराशामय जीवन में आशा का संचार करना तथा विलाज जर मानव में नैतिक शक्ति की संजीवनी मरना इन कवियों की वैराग्योन्मुख प्रवृत्ति का मूल उद्देश्य कहा जा सकता है।
(८) संसार की असारता तथा जीवन की नश्वरता दिखाकर वैराग्य का उपदेश देने के पीछे इन कवियों का उद्देश्य समाज के भेद भाव, अत्याचार-अनाचार और हिंसा आदि दुर्गुणों को मिटाकर प्राणी मात्र में शील, सदाचार आदि का नैतिक वल भरना भी रहा है।
(8) ये कवि अपने सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक तथा नैतिक विचारों में अत्यधिक स्पष्ट, उदार तथा असाम्प्रदायिक विचारों को प्रश्रय देते रहे हैं।
(१०) इन कवियों के प्रकृति चित्रण में प्रायः उद्दीपनगत एवं अलंकारगत चित्रण ही प्राप्त होता है।