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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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'रजनी' १
यह राग द्वेषादि से उत्पन्न आन्तरिक वेदना का प्रतीक है | इन कवियों ने 'रजनी' का प्रयोग इसी आन्तरिक वेदना और निराशा जनित भावों hat afarक्त के लिए किया है । ज्ञानानंद, किशनदास, यशोविजय, जिनहर्ष आदि ने भी रजनी प्रतीक का प्रयोग किया है |
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"पंच" २-पंचेद्रियां और उनके द्वारा विषयसेवन के लिए संख्यामूलक प्रतीक रूप में इस शब्द का प्रयोग हुआ है | ज्ञानानन्द, यशोविजय, धर्मवर्द्धन आदि कवियों ने विषयाशक्ति और इन्द्रियों के स्वैराचार की अभिव्यक्ति इस प्रतीक द्वारा की है । इस प्रकार के दुःख विकारादिक के सूचक प्रतीकों में ज्ञानानन्द की कविता में मोह, माया, प्रपंच तथा पाखंड के 'नटवाजी', 'तसकर' चोर, नींद आदि प्रतीकों के द्वारा व्यक्त किया गया है । जीवन की क्षणभंगुरता के लिए विनयविजय जी ने बादल की छाह, आनंदघन जी ने 'छांह गगन वदरीरी' तथा किशनदास ने काया की मात्रा के लिए 'बादल की छाया' कहा है । इसी तरह आनंदघन और यशोविजय जी ने-काम-क्रोधादि विकारों को 'अरि', संसार सुख को मृगतृष्णा विषय वासनारत जीव को 'काग', संसारी जीवन को 'अवला', हठीले मन को 'घोड़ा' ३, जोवन झलक को 'चपला की-सी चमक' ४ तथा विषयसुख को 'धनुष जैसो घन को '५ कहा है । 'हस्ति' ६ प्रतीक अहंकार और अज्ञान के भाव को और अहंकारी व्यक्ति की क्रियाएं मदोन्मत्त हाथी की धर्मवर्द्धन ने अपने प्रतीकों को स्वयं स्पष्ट करते लिखा है
व्यक्त करता है । अज्ञानी तरह ही होती हैं । कवि
" मन मृग तु तन वन मे माती ।
केलि करे चरै इच्छा चारी, जाणें नहीं दिन जातो ॥१॥ मायारूप महा मृगत्रिसनां, जिनमें धावे तातो ।
आखर पूरी होत न इच्छा, तो भी नही पछतातो ॥२॥६
१. हिन्दी पद संग्रह, संपा० डॉ० कस्तूरतन्द कासलीवाल, पृ० १६ कुमुदचंद के पद ।
२. भजन संग्रह धर्मामृच, ज्ञानानन्द के पद, पृ० ६ ।
३. "घोरा झूठा है रे तू मत भूले असचारा ।" विनयविलास, विनयविजय ।
४. उपदेश बावनी, किशनदास ।
५. ( अ ) हस्ति महामद मस्त मनोहर, भार वहाई के ताहि विगोवे || 5 || जिनहर्ष, जसराज बावनी ।
(आ) जोवन तसुणी तनु रेवा तट, मन मातंग रमा चउ ॥ जिनराजसूरि कृत कुसुमांजलि, पृ० ६२-६३
६. धर्मवर्द्धन ग्रंथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ६० ।