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आलोचना-खंड
धर्मवर्घन की राजुल को प्रिय वियोग में पल-पल वर्ष समान लग रहे हैं । पानी विना मछली की-सी तड़फन अनुभव कर रही है । रात्रि में वियोगी चकवी की भांति उसका चित्त व्याकुल हो रहा है। कोयल अनेक वृक्षों को छोड़ आम्रवृक्ष की डाल पर ही उल्लास का अनुभव करती है । इस भाव का स्तवन देखिये
"इक खिण खिण प्रीतम पखे रे लाल, वरस समान विहास हे सहेली। पाणी के विरहैं पड्या रे लाल, मछली जेम मुरझाय हे सहेली ॥३॥ चकवी निस पिउ सुचहै रे लाल, त्यु मुझ चित्त तल फाय हे सहेली। कोडि विरख तज कोइली रे लाल, आंवा डाल उम्हाय हे सहेली ॥४॥"?
नेमिनाथ और राजुल के कथानक को लेकर 'वारहमासा' भी अनेक रचे गये हैं । कवि लक्ष्मी वल्लभ और जिनहर्ष प्रणीत बारहमासे उत्तम कोटि के हैं । लक्ष्मी वल्लभ की ग्नेमि राजुल बारहमासा' कृति में प्रकृति के रमणीय सान्निध्य में विरहिणी के व्याकुल मावों की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है, 'श्रावण का महीना है, चारों
ओर विकट घन घोर घटाएँ उमड़ आई हैं। मोर शोर मचा रहे हैं। आकाग में दामिनी दमक रही है। कुम्भस्थल के से स्तनों वाली भामिनियों को प्रिय का संग मा रहा है । स्वाती नक्षत्र की वू'दों से चातक की पीड़ा दूर हो गई है । पृथ्वी की देह भी हरियाली को पाकर दिप उठी है, किन्तु राजुल का न तो पिय ही आया न पत्र ही ।"२ कवि जिनहर्ष के 'नेमि बारहमास' के १२ सवैयों में सौंदर्य एवं आकर्षण परिव्याप्त है। श्रावण मास में राजुल की विरह व्यथित दशा का चित्र उपस्थित करता कवि कहता है, 'श्रावण मास है, बादल की घनघोर घटाएँ उमड़ आई हैं। विजली झलमलाती चमक उठती है, उसके मध्य से वज्र-सी व्वनि फूट रही है, जो राजुल को विष-वेलि के समान लगती है। पपीहा "पिउ-पिउ' पुकार मचा रहा है। दादुर और मोर भी शोर मचा रहे हैं। ऐसे समय में यदि नेमि मिल जाय तो राजुल
१. धर्मवर्धन ग्रंथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, 'नेमि राजमति स्तवन',
पृ० १६२। २. उमटी विकट घन घोर घटा चिहुं ओरनि मोरनि सोर मचायो।
चमकै दिवि दामिनि यामिनि कुभय भामिनि कुपिय को संग भायो । लिव चातक पीउ ही पीड लई, भई राजहरी मुइ देह दिपायो। पतियां पै न पाई री प्रीतम की अली, श्रावण आयो पे नेम न आयो ।
-नेमि राजुल वारहमासा, लक्ष्मी वल्लभ, प्रस्तुत प्रवन्ध का तीसरा प्रकरण।