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परिचय खड
हरि हर ब्रह्म पुरन्दर की ॠद्धि, आवत नहि कोउ भान में । चिदानन्द की मोज मती है, समता रस के पान में ॥" चित्तदमन, इन्द्रियनिग्रह बादि को अन्य संतों की भाँति यशोविजयी ने भी अपने काव्य का विषय बनाया है । 'जब लग मन आवे नहि ठाम | तब लग कष्ट क्रिया सवि निष्फल ज्यो गगने चित्राम" यशोविजय जी के पास ज्ञान की शुष्कता ही नहीं श्री अपितु मक्ति की स्निग्धता मी वर्तमान थी । उनकी प्रेम दिवानी आत्मा पिउ की रट लगाए बैठी है— 'विरह दीवानी फिरू ढूंढती, पीउ पीउ करके . पोकारेंगे ।" और जब उनकी आत्मा को मात्र पुकारने से संतोष नहीं मिलता और दर्शन की उत्कण्ठा बढ़ जाती है तब कवि की वाणी मुखर हो उठती है
" चेतन अब मोहि दर्शन दीजे । तुम दर्शनें शिवसुख पामीजे, तुम कारन तप संयम किरिया, तुम दर्शन विनु सव या झूठी, बन्तर चित्त न भीजे ॥"
तुम दर्शने भव छीजे । कहो कहाँ लो कीजे ।
यशोविजय जी की विभिन्न कवियों के अध्ययन से यह प्रतीति हुए विना नहीं रहती कि उनकी वाणी प्रभावोत्पादक है । भाषा प्रसाद गुण सम्पन्न है, शैली सरसता से पूर्ण और छन्द शास्त्रीय राग-रागनियों में निबद्ध |
ज्ञानविमलसूरि १ : (सं० १६९४ (जन्म) - १७८२ (मृत्यु) )
इनका जन्म वीसा ओसवालवंश में संवत् १६६४ में ( भिन्नमाल में ) हुला था । २ इनके पिता का नाम वासव श्री तथा माता का नाम कनकावती था । तपगच्छीय विनयविमल के शिष्य वीरविमय से इन्होंने सं० १७०२ में दीक्षा ली । इनका दीक्षापूर्व का नाम 'नाथुमल्ल' था । दीक्षा नाम 'नयविमल' रखा गया । उन्होंने काव्य, तर्क, न्याय तथा अन्य शास्त्रादि में निपुणता प्राप्त की। नय- विमल की सम्पूर्ण योग्यता देव श्री विजयत्रममूरि ने उन्हें सं० १७२७ में सादडी (मारवाड) के निकटवर्ती ग्राम 'धागे राव' में पंडितद (पंन्यास पद) प्रदान किया । सं० १७३९ में इनके गुरु काल धर्मं को प्राप्त हुए । तदन्तर संवत् १७४७ में ये पाटण आये । यहां श्री महिमासागरसूरि ने मंडेसर (संडेर) ग्राम में सं० १७४८ में इन्हें आचार्य पद से विभूषित किया । आचार्यपद प्राप्त नयविमल अव ज्ञानविमलसूरि वन गये ।
'श्री ज्ञानविमलमूरि चरित्र राम की एक प्राचीन प्रति मिली है, जिससे कवि के विषय में अच्छी जानकारी मिलती है । प्रकाशित, प्राचीन स्तवनादि रत्नसंग्रह, नाग १, पृ० १७ ।
जैन गुर्जर कविओ, नाग २, पृ० ३०८ |