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आलोचना-खंड
कहुं सार अभिसारिका करें शृंगार,
चले लचक कटी छीन कुचके जु भारं ॥५६॥"१ कवि मालदेव के "स्यूलिभद्र फाग” में कोशा वेश्या के रूप-सौंदर्य का वर्णन । करता हुआ कहता है--
"विकसित कमल नयन बनि, काम वाण अनिया रे । खांचइ ममुह कमान शु, कामी मृग-मन मारि रे ॥३९॥ कानहि कुंडल घारती, जानु मदन की जाली रे,
स्याम भुयंगी यू वेणी, यौवन धन रपवाली रे ॥"२
पर अन्त तो शान्त रस में ही हुआ है। कवि स्यूलिभद्र मुनि का उदाहरण देकर ब्रह्मचर्य पालन करने, शील व्रतधारी तथा नारी संगति को छोड़ने का उपदेश देता है
"मालदेव इम वीनवइ, नारी-संगति टालउरे,
थूलिमद्र मुनि नी परईं, सोल महाव्रत पालउरे ॥१०७॥"३ सामान्यतया शृंगार और शांत परस्पर विरोधी रस हैं। शृंगार रस मानव जीवन को कामना सिक्त बनाता हैं, शांत जीवन की हर प्रवृत्ति का शमन कर देता है । इस कवियों ने इन दो विरोधी रसों का भी मेल कराया है। यहां शृंगार और शम गले मिलते-से लगते हैं। इनका प्रत्येक शृंगारिक नायक निर्वेद के द्वारा अपनी उतेजना, इन्द्रिय लिप्सा और मादकता का परिहार शम में करता है। वस्तुतः इन कवियों की सभी रसों में हुई सृजन सलिला का अन्त में "शम" या निर्वेद में पर्यवसान होता है। इस दृष्टि से विनयचन्द्र की स्थूलिभद्र बारहमास', समयसुन्दर की 'सीताराम चौपाई', जिनहर्ष रचित 'बारह मासे', खेमचन्द्र की 'गुणमाला चौपाई, चन्द्रकीर्ति की 'भरत वाहुबलि छंद', जिनराजसूरि का 'शालिमद्र रास' आदि लगभग सभी कृतियों में विभिन्न रसों की परिणति गांत में ही हुई है। इन कृतियों का मूल विषय धार्मिक या उपदेश प्रधान रहने से अन्त में कवि अपने नायक-नायिकाओं को निर्वेद ग्रहण करा देते हैं अयवा कथा का अन्त शांत रस में प्रतिफलित कर देते हैं। उदाहरणार्थ जिनराजसूरि की 'शालिभद्र रास' कृति के नायक शालिभद्र में कवि ने भोग और योग का अद्भुत सनन्वय कराया है। गालिभद्र एक ऐसा नायक है जो संसार को फूल की १. 'मदन युद्ध' हेम कवि, प्रस्तुत प्रबंध का तीसरा प्रकरण । २. स्थूनिभद्र फाग, मालदेव, प्राचीन फाग संग्रह, संपा० डॉ० भोगीलाल सांडेसरा,
पृ० ३१ । ३. वही ।
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