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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
इनकी लगभग १२ लघु कृतियों का उल्लेख डॉ० कासलीवाल ने किया है । १ इनकी रचनाएं प्रायः लघु और साधारण कोटि की हैं जिनका उद्देश्य हिन्दी भाषा एवं जैन धर्म का प्रचार प्रतीत होता है । इनकी पंच-कल्याण गीत एवं चुनडी गीत रचनाएं विशेष उल्लेखनीय हैं। प्रथम में शांतिनाथ के पांच कल्याणकों का वर्णन है तथा दूसरी कृति एक सुन्दर रूपक गीत है। उसमें नेमिनाथ के चरित्र रूपी चुनडी की विशेषता, भव्यता एवं अलौकिकता का कवि ने बड़ा ही काव्यमय वर्णन किया है । इस अध्यात्मिक रूपक-काव्य के अन्त में कवि कहता है
" चित चुनड़ी ए जे धरमें, मनवांछित नेम सुख करसे । संसार सागर ते तरसे, पुन्य रत्ननो भंडार भरसे ।। सुरि रत्न कीरति जसकारी, शुभ धर्म शशि गुण धारी ।
नर-नारि चुनड़ी गावे, ब्रह्मजयसागर कहे भावे ॥ १६ ॥"
इनकी रचनाएं प्रायः अपभ्रंश मिश्रित राजस्थानी एवं गुजराती में हैं । विपय तथा भापा शैली की दृष्टि से ये साधारण कोटि के कवि हैं। रत्नकोति भट्टारक ३ : (सं० १६००-१६५६ )
__इनका जन्म संवत् १५६० के आस पास घोघानगर (गुजरात) में हुआ था। २ ये जैनों की हुंवड़ जाति से उत्पन्न हुए थे। इनके पिता का नाम सेठ देवीदास और माता का नाम सहजलदे था। कवि के बचपन के नाम का उल्लेख नहीं मिलता । बचपन से ही ये व्युत्पन्नमति, होनहार एवं साहित्याभिरुचि युक्त थे। प्राकृत एवं संस्कृत ग्रंर्थों का इन्होंने गहरा अध्ययन किया था। एक दिन भट्ठारक अभयनन्दि से इनका साक्षात्कार हुआ। भट्टारक अत्यन्त प्रसन्न हुए। इनकी वाल प्रतिभा, विद्वता एवं वागचातुर्य से प्रभावित होकर उन्होंने रत्नकीति को अपना शिष्य बना लिया।
गुरु ने उन्हें सिद्धांत, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष, आयुर्वेदिक आदि विषयों के ग्रंथों का अध्ययन करवाया। व्युत्पन्नमति रलचंद्र ने इन सव विधाओं पर एवं मंत्र विद्या पर मी पूर्ण अधिकार कर लिया। गुरु भट्टारक अभयनंदि अपने युग के ख्याति प्राप्त विद्वान थे । रत्नकीर्ति उन्हीं के पास रहे और अध्ययन करते रहे। कालांतर में अभयनन्दि ने उन्हें अपना पट्टशिप्य घोपित किया और सं० १६४३ में एक विशेष १ डॉ० कस्तुरचन्द कासलीवाल, राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व,
पृ० १५३ २ वलात्कार गण की सूरत शाखा की एक ओर परंपरा म० लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य अभयचन्द्र से आरंभ हुई थी। उनके पट्ट शिष्य अभयनंदि थे । इन अभयनंदि के शिष्य रत्नकीर्ति हुए । भट्ठारक सम्प्रदाय, जीवराज ग्रंथमाला, शोलापुर, पृ० २०० ३ हिन्की पद संग्रह, डॉ. कस्तुरचंद कासलीवील, पृ०