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परिचय खंड
हिन्दी, मारवाड़ी, गुजराती, सिंधी आदि भाषाओं का स्वरूप समझने के लिये समयसुन्दर के गीत, पद तथा रासादि साहित्य अत्यंत उपयोगी है । १
___ कवि समयसुदर ने राजस्थानी, गुजराती तथा अन्य प्रादेशिक देशियों-ढालों तथा रागनियों का सर्वोत्तम प्रयोग किया है । २ यही कारण है कि इनके वाद के अनेक कवियों ने इन्हें अपनाने की प्रवृत्ति प्रदर्शित की है।
विभिन्न प्रदेशों के विहार-प्रवास के फलस्वरूप कवि की भाषा में अनेक स्थानों की भापाओं के शब्द, वाक्य आदि स्वतः प्रविष्ट हो गए हैं। इनकी भाषा पर राजस्थानी व गुजराती भापा का विशेष प्रभाव है । मुगल दरवारों से सम्पृक्त होने के कारण आपकी भाषा में उर्दू-फारसी के शब्द भी आ ही गए हैं। कहीं-कहीं तो एक ही रचना में अनेक भाषाओं का मिश्रण पाया जाता है।
विपुल साहित्य-सर्जन के द्वारा कवि का लक्ष्य कथा के माध्यम से सम्यक् ज्ञान, धर्म व सदाचार को पोपित करना, दान, शील आदि गुणों का प्रचार करना रहा है। कवि का समस्त साहित्य मानव के लिए प्रेरणास्प सिद्ध होता है। कल्वाणदेव : ( सं० १६४३ आसपास )
ये खरतरगच्जीय जिनचंद्रसूरि के शिष्य चरणोदय के शिष्य थे । इनकी एक कृति "देवराजवच्छराज चउपई" सम्बत् १६४३ में विक्रमनगर में रची गई प्राप्त होती है । ३
श्वेताम्बर सम्प्रदाय के खरतरगच्छीय साधूओं का राजस्थान और गुजरात में विशेष विहार रहा है । अत: इनकी भाषा में प्रांतीय भापा का मिश्रिण प्रायः देखा जाता है। कल्याणदेव की भापा में भी गूजराती का अत्यधिक मिश्रण है। अतः कवि का गुजरात से घनिष्ट संबंध सिद्ध हो जाता है । १ सं० अगरचंद नाहटा, समयसुदर कृति कुसुमांजलि, (डॉ० हजारी प्रसाद द्वारा
लिखित) २ “संधि पूरव मरूवर गुजराती ढाल नव नव भांति के" ~ समयसुदर मृगावती
चौपइ।
"सीताराम चौपई जे चतुर हुइ ते वांचे रे, राग रनन जवाहर तणो कुण भेद लहे नर सावो रे। जे दरवार गए हुसे, ढंढाहि, मेवाडि ने दिल्ली रे, गुजरात मारू आदि में ते कहि
से ढाल ए भल्ली रे" -समयसुदर, सीताराम चौपई ३ (क) नाथूराम प्रेमी कृत हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, पृ० ४६-४४ (ख) जैन गूर्जर कवियों, भाग १, देवराजवच्छराज चउपई, पृ० १७५