Book Title: Dravyanuyoga Part 1
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj & Others
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 12
________________ [ प्रकाशकीय जिनवाणी रूप श्रुत आगम शास्त्रों को विद्वद् मनीषी आचार्यों ने चार अनुयोगों में विभक्त किया है१.धर्मकथानुयोग २. गणितानुयोग ३. चरणानुयोग ४. द्रव्यानुयोग हमारे ट्रस्ट ने इन चारों अनुयोगों के प्रकाशन का महत्त्वपूर्ण महान् कार्य अपने हाथ में लिया। निरन्तर प्रयत्न, जन-सहयोग तथा पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री कन्हैयालाल जी महाराज 'कमल' के दृढ़ अपराजित अध्यवसाय के बल पर हम अपने लक्ष्य में आगे बढ़ते गये। प्रथम तीन अनुयोगों का प्रकाशन कार्य सम्पूर्ण हो चुका है और वे ग्रन्थ जिन-जिन विद्वानों तथा आगम अनुसंधाताओं के पास गये हैं, सभी ने मुक्त कंठ से उनकी प्रशंसा की है। अब द्रव्यानुयोग का चिर-प्रतीक्षित कार्य पूर्ण हो चुका है और उसका प्रथम भाग पाठकों के हाथों में है। द्रव्यानुयोग का विषय जैन दर्शन का प्राण माना जाता है, द्रव्यानुयोग का सम्यक्ज्ञान हुए बिना सम्यक्दर्शन की स्पर्शना संभव नहीं है। इसलिये प्रत्येक मुमुक्षु के लिए द्रव्यानुयोग का अध्ययन/स्वाध्याय/मनन आवश्यक है। वैदिक परम्परा के अनुसार भगवान विष्णु ने देव-दानव अर्थात् संसार की समग्र शक्तियों का सहयोग प्राप्त कर समुद्र-मंथन किया, उस मंथन में अनेक रत्नों, महाऱ्या तत्त्वों के साथ 'अमृत' की प्राप्ति हुई थी, ऐसा माना जाता है। ___ आगम शास्त्र समुद्र-मंथन में अनवरत प्रयत्नशील होकर तथा सभी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों से सहयोग प्राप्त कर पूज्य गुरुदेव उपाध्याय मुनि श्री कन्हैयालाल जी म. ने जैनाचार्य पूज्य श्री स्वामीदास जी म. की परम्परा के पूज्य गुरुदेव श्री फतेहचन्द जी म., श्री प्रतापचन्द जी म., तपस्वी श्री वक्तावरमल जी म. की प्रेरणा रूप आशीर्वाद से तथा अपने निरन्तर प्रयास और दृढ़ अध्यवसाय के बल पर द्रव्यानुयोग रूप 'अमृत' प्रदान कर हमें अनुगृहीत किया है। आप, हम, सब अत्यन्त सौभाग्यशाली हैं और पूज्य गुरुदेव के चिर-कृतज्ञ हैं। अनुयोग सम्पादन-प्रकाशन कार्य में पूज्य गुरुदेव श्री कन्हैयालाल जी म. 'कमल' ने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया है। ऐसे जीवन-दानी श्रुत उपासक सन्त के प्रति आभार व्यक्त करना मात्र एक औपचारिकता होगी, आने वाली पीढ़ियाँ युग-युग तक उनका उपकार स्मरण कर श्रुत-बहुमान करेंगी यही उनके प्रति सच्ची कृतज्ञता होगी। गुरुदेवश्री के सेवाभावी शिष्य श्री विनय मुनि जी भी सेवा, व्याख्यान, विहार आदि श्रमण जीवन की आवश्यक चर्या का सम्यक् परिपालन करते हुए अनवरत अनुयोग सम्पादन में छाया की भाँति गुरुदेव के परम सहयोगी रहे। उन्होंने भी महासती जी श्री दिव्यप्रभा जी से प्रेरणा पाकर अथक परिश्रम किया है। पाठ मिलाना, संशोधन करना, प्रेस-कापी जाँचना, प्रूफ देखना आदि सभी कार्य उन्होंने किये हैं। इस ग्रन्थ को पूरा कराने का श्रेय उन्हीं को है हम उनका उपकार नहीं भूल सकते हैं। आगम मनीषी श्री तिलोक मुनि जी ने पाठ संशोधन आदि में विशेष योगदान किया है। खंभात संप्रदाय के आचार्य श्री कांति ऋषि जी म. के विद्वान् शिष्य व्याकरणाचार्य श्री महेन्द्र ऋषि जी ने भी गुरुदेव के साथ आगम सम्पादन कार्य में स्मरणीय योग दिया है अतः हम उनके आभारी हैं। स्थानकवासी जैन समाज के प्रख्यात तत्त्व-चिन्तक आत्मार्थी पूज्य मोहन ऋषि जी म. की विदुषी सुशिष्या जिनशासन चन्द्रिका महासती उज्ज्वलकुमारी जी की सुशिष्या डॉ. महासती मुक्तिप्रमा जी, डॉ. महासती दिव्यप्रभा जी तथा उनकी श्रुताभ्यासी शिष्याओं की सेवायें इस कार्य में समर्पित रही हैं। उनकी अनवरत श्रुत-सेवा से ही यह विशाल कार्य शीघ्र सम्पन्न हो सका है। उन्होंने अनेक वर्षों तक पूज्य गुरुदेव के निर्देशन में मूल-पाठ संकलन लेखन आदि में अनेक परीषह सहन करते हुए योगदान दिया है अतः हम उनके चिर-ऋणी हैं। जैन दर्शन के विख्यात विद्वान् श्री दलसुखभाई मालवणिया भारतीय प्राच्य विद्याओं के प्रतिनिधि विद्वान् हैं, उनका आत्मीय सहयोग अनुयोग प्रकाशन कार्य में प्रारम्भ से ही रहा है। उन्होंने अत्यधिक उदारता व निःस्वार्थ भावना से इस कार्य में मार्गदर्शन किया है, सहयोग दिया है, समय-समय पर अपना मूल्यवान परामर्श भी दिया अतः उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना हमारा कर्तव्य है। सेवा मंदिर रावटी, जोधपुर के निर्देशक श्रुतसेवी त्यागी पुरुष श्री जौहरीमल जी पारख का भी समय-समय पर निर्देश प्राप्त हुआ है, इसलिए हम उनके भी आभारी हैं। (९)

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