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सोमवसु की कथा
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अनेक पर्व- उत्सव वाली कौशांबी नामक नगरी थी । उसमें जन्म से अति दरिद्र सोमवसु नामक एक बड़ा विप्र था। वह जो-जो काम करता था, वह सब निष्फल हो जाता था। जिससे वह उद्विग्न होकर धर्म से कुछ विमुख होने लगा। __एक दिन वह धर्मशाला में धर्मशास्त्र पाठक द्वारा निज शिष्यों को कहा जाता हुआ निम्नांकित धर्म पाठ सुनने लगा।
पर्वत के शिखर समान ऊँचे मदमस्त हाथी, समुद्र की लहरों को जीतने वाले पवनवेगी घोड़े, उत्तम रथ, कोटि संख्य सुभट और लक्ष्मी परिपूर्ण नगर, ग्राम आदि सकल वस्तुएँ जीवों को धर्म से प्राप्त होती हैं।
देवगण को पूजनीय पवित्र इन्द्रत्व, अनेकों सुख भोग युक्त चक्रवर्ती राज्य, बलदेवत्व, वासुदेवत्व इत्यादिक जगत को चमत्कारिक पदवीएँ सब धर्म की लीला है व अति आतुरता से उछलती माला वाले इन्द्र जिसको नमन करते हैं ऐसा महा सुखमय तीर्थकरत्व तथा अन्य भी सकल प्रशस्तपन जो कि प्राणी प्राप्त कर सकते हैं, वह सर्व धर्म रूप कल्पवृक्ष का फल जानो। जिसे सुन सोमवसु बोला कि- यह बात सच्ची है परन्तु कृपा कर कहिये कि-मैं यह धर्म किससे ग्रहण करू?
तब धर्म शास्त्र पाठक बोला कि- “ मिष्ट भोजन, सुख शय्या और अपने को लोक प्रिय करना” इन तीन पदों को जो भलीभांति जानता व पालता हो उससे तू धर्म ग्रहण कर, कि जिससे हे भद्र ! तू शीघ्र भद्र-पद पावेगा।
उसने धर्म शास्त्र पाठक को पूछा कि- इन पदों का क्या अर्थ है ? तब उसने कहा कि-इनका परम अर्थ तो जो निर्मल बुद्धि हों, वे जाने ।