Book Title: Dharmratna Prakaran Part 01
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 299
________________ २८८ शुद्धभूमिका पर OCE इन अभी कहे हुए गुणों से जो सम्पन्न याने युक्त अथवा सम्पूर्ण हो वह योग्यता पूर्वक धर्म रत्न को ( पाने के लिये ) योग्य होता है। न कि वसंत राजा के समान राजलीला ही को पाता है, यह भाव है। क्या एकान्त से इतने गुणों से संपन्न होवे वे ही धर्म के अधिकारी हैं अथवा कुछ अपवाद भी है ? इस प्रश्न का उत्तर कहते हैं। पायद्धगुणविहीणा एएसिं मज्झिमा वरा नेया। इत्तो परेण हीणा दरिद्दपाया मुणेयव्या ॥३०॥ मूल का अर्थ-इन गुणों के चतुर्थ भाग से हीन होवे वे मध्यम हैं और अर्द्ध भाग से हीन हो वे जघन्यपात्र हैं किन्तु इससे अधिक हीन हों वे दरिद्रप्रायः अर्थात् अयोग्य हैं। ___ यहां अधिकारी तीन प्रकार के है:-उत्तम, मध्यम व जघन्य उसमें पूरे गुण वाले हो वे उत्तम हैं । पाद याने चतुर्थ भाग और अर्द्ध याने आधा भाग गुण शब्द प्रत्येक में लगाना चाहिये । जिससे यह अर्थ है कि चतुर्थ भाग अथवा अर्ध भाग के बराबर गुणों से जो हीन याने विकल उक्त ( कहे हुए) गुणों में से हों वे क्रमशः मध्यम व जघन्य हैं अर्थात् चतुर्थ भाग हीन सो मध्यम और अद्ध हीन सो जघन्य है। उससे भी जो हीनतर हो उन्हें कैसे मानना सो कहते हैं । इससे अधिक याने अर्द्ध भाग से भी अधिक गुणों से जो होन याने रहित हों वे दरिद-प्रायः याने भिक्षुक के समान हैं । जैसे दरिद्री लोग उदर पोषण की चिन्ता ही में व्याकुल रहने से रत्न खरीदने का मनोरथमात्र भी नहीं कर सकते, वैसे ही वे भी धर्म की अभिलाषामात्र भी नहीं कर सकते।

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