Book Title: Dharmratna Prakaran Part 01
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 303
________________ २६२ श्रावक शब्द का अर्थ श्रावक धर्म का अधिकारी थान्तर में इस भांति कहा है-“वहां जो अर्थी हो समर्थ हो सूत्र निषिद्ध न हो वह अधिकारी । अर्थी वह है कि जो विनीत हो सन्मुख आकर पूछने वाला हो । इस प्रकार अधिकारी बताया गया है और विरतश्रावक धर्म का अधिकारी इस प्रकार है: जो सम्यक्त्व पाकर नित्य यतिजनों से उत्तम सामाचारी सुनता है उसी को श्रावक कहते हैं । वैसे ही जो परलोक में हितकारी जिनवचनों को जो सम्यक् रीति से उपयोग पूर्वक सुनता है व अतितीव्र कर्मों का नाश होने से उत्कृष्ट श्रावक है। इत्यादिक खास रीति से श्रावक शब्द को प्रवृत्ति के हेतु रूप सूत्रों के द्वारा अधिकारीपन बताया है और यतिधर्म के अधिकारी भी अन्य स्थान में इस प्रकार कहे हुए हैं कि जो आर्यदेश में समुत्पन्न हुए हो इत्यादि लक्षण वाले हों वही उसके अधिकारी हैं । इसलिये इन इकवीस गुणों द्वारा तुम कौन से धर्म का अधिकारित्व कहते हो? यहां उत्तर देते हैं कि-ये सर्व शास्त्रान्तर में कहे हुए लक्षण प्रायः उन गुणों के अंगभूत ही हैं । जैसे कि चित्र एक होने पर भी उस में विचित्र वर्ण, विचित्र रंग और विचित्र रेखाएं दृष्टि में आती हैं और वर्तमान गुण तो सर्व धर्मो की साधारण भूमि के समान हैं, जैसे भिन्नर चित्रों की भी जगह तो एक ही होता है । यह बात सूक्ष्मबुद्धि से विचारणीय है । तथा इसी ग्रन्थ में कहने वाले हैं कि-दो प्रकार का धर्मरत्न भी पूर्णतः ग्रहण करने को वही समर्थ होता है कि जिसके पास इन इकवीस गुण रूप रत्नों को ऋद्धि सुस्थिर होती है, अतएव यहां कहते हैं

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