Book Title: Dharmratna Prakaran Part 01
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 294
________________ नागार्जुन की कथा २८३ कहा है कि--प्रत्येक जन्म में जीवों को कुछ शुभाशुभ कार्य का अभ्यास किया हुआ हो, वह उसी अभ्यास के योग से यहां सुखपूर्वक सीखा जा सकता है । इसीसे दक्ष याने चालाक होने से सुशासनीय ( सुख से शिक्षित हो ऐसा ) होने से त्वरित् याने अल्प काल में सुशिक्षा का पारगामी होता है । नागार्जुन योगी के समान नागार्जुन की कथा इस प्रकार है गांधी के बाजार के समान सुगंधित (सुयशवान् ) पाटलिपुत्र नामक नगर था । वहां मुरुड नामक राजा था । उसके चरण कमलों में लाखों ठाकुर नमते थे । वहां काम को जीतने वाले और बहुत से आगम को शुद्ध रीति से पढ़े हुए संगमनामक महान् आचार्य पापसमूह को दूर करते हुए विचरते२ आ पहुँचे । उनके व्याकरण के समान गुण वृद्धि भाव वाला (वृद्धि पाते हुए गुणवाला) सक्रिया से सुशोभित और रुचिर शब्द वाला एक शिष्य था। वह बालक होते हुए भी पूर्णवयस्कोचित बुद्धिरूप गुणरत्न का रोहणाचल था। वह एक समय चतुर्थ रसवाली याने खट्टी राब लाकर गुरु से इस प्रकार बोला- . तात्र समान रक्त नेत्र वाली और पुष्प समान दांत वाली नवयुवती वधू ने कड़छी से यह ताजा व नवीन चावल की कांजी का अपुष्पित आम्ल (खट्टा) मुझे दिया है । तब गुरुने कहा कि-हे वत्स ! तू ऐसा बोलता है जिससे प्रतीत होता है कि तूप्रलिप्त (पलित ) हुआ है । तब वह बोला कि-मुझे आचार सिखाने की कृपा करिए । गुरु ने वैसा ही किया, तथापि लोगों ने उसका नाम पालितक रख दिया । वह बहुतसी सिद्धियों वाला व वादी हुआ। जिससे गुरु ने उसे अपने पद पर स्थापित किया।

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