________________
नागार्जुन की कथा
२८५
है । इस प्रकार निर्वाधा से वाद में वादियों को जीतने के अनन्तर गुरु ने उनके समक्ष नव-रस-पूर्ण व तरंग समान आगे बढ़ती हुई कथा कह सुनाई। व मुरुड राजा के बीमार होने पर उसके मस्तक को वेदना उक्त आचार्य ने शमन कर दी और ऐसी कविता करी है कि वैसी आज तक अन्य कवि न कर सके ।
यथाः-लंबे सर्प रूप नाल वाले, पर्वत रूपी केशरा वाले, और दिशा के मुख रूप दल वाले (पखड़ी वाले) पृथ्वी रूप पद्म में काल रूपी भ्रमर, देखो मनुष्य रूपी मकरंद पीता है । तथा उक्त आचार्य ने लब्धलक्ष्य से जो गूढ़ सूत्र आदि अनेक भाव जान लिये हैं, वे बड़े२ ग्रन्थों से जान लेना चाहिये । उक्त पादलिप्त सूरि अष्टमी आदि पवा में अपने चरणों में लेप करके गिरनार व शत्रुजय पर आकाश मार्ग से देव-वन्दन करने को जाया करते थे।
इधर सौराष्ट्र देश में सुवर्ण सिद्धि से ख्याति पाया हुआ और सर्व विषयों में ध्यान देने वाला नागार्जुन नामक योगी था । वह पादलिप्त सूरि को देखकर बोला कि-आप मुझे आपकी पादलेप की सिद्धि बताइये और मेरी यह सुवर्ण सिद्धि मैं आपको देता हूँ, तब सूरि ने उसे उत्तर दिया कि - ___ हे कंचन सिद्ध योगी ! मैं अकिंचन हूँ, तो भला मुझे इस पाप पूर्ण सुवर्ण-सिद्धि से क्या कार्य है व इससे क्या लाभ है। तथा तुझे पादलेप को सिद्धि देना यह सावध कार्य है । अतः वह भी मैं दे नहीं सकता, क्योंकि-हे भद्र ! मुनियों को सावध का उपदेश मात्र भी करना उचित नहीं।
तब वह योगी मनमलीन होकर किन्तु भलीभांति लक्ष्य रखकर श्रावक की चैत्यवन्दन, गुरुवन्दन आदि अनेक क्रियाएँ