Book Title: Dharmratna Prakaran Part 01
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 269
________________ २५८ परहितार्थकारिता गुण पर इस सूत्र की वृत्ति का अर्थ-तथारूप याने योग्य स्वभाव वाले किसी पुरुष को, श्रमण याने तपस्वी को, यह उपलक्षण बताने वाला पद होने से इसका यह परमार्थ निकलता है कि उत्तर गुणवान् को, माहन याने स्वयं हनन करने से निवृत्त होने से दूसरे को माहन (मत हन ) ऐसा बोलने वाले को, यह पद भी उपलक्षण वाची होने से इसका यह परमार्थ निकलता है कि-मूलगुण वाले को, वा शब्द समुच्चयार्थ है, अथवा श्रमण याने साधु और माहन याने श्रावक जानना । उसकी पर्युपासना श्रवण-फला याने सिद्धान्त श्रवण के फलवाली है । श्रवण ज्ञानफल वाला है याने श्र तज्ञान के फलवाला है । क्योंकि श्रवण से श्र तज्ञान प्राप्त होता है। उससे विज्ञान याने विशिष्ट ज्ञान होता है । क्योंकि श्रु तज्ञान से हेय और उपादेय का विवेक कराने वाला विज्ञान उत्पन्न होता है । उससे प्रत्याख्यान याने निवृत्ति होती है । क्योंकि विशिष्ट ज्ञानवान पुरुष पार का बर्जन करता है। उससे संयम होता है । क्योंकि प्रत्याख्यान करने वाले को संयम होता ही है। उससे अनाव होता है । क्योंकि संयम वाला पुरुष नया कर्म संचय नहीं करता। उससे तप किया जा सकता है। क्योंकि अनात्री जो है, वह लघु कर्मी होने से तर करने में समर्थ होता है, तपसे व्यवदान याने कर्म को निर्जरा होती है। क्योंकि तपसे प्राचीन कर्म क्षय किये जाते हैं । उससे अक्रिया याने योग निरोध होता है। क्योंकि कर्म की निर्जरा से योग निरोध किया जा सकता है और उससे सिद्धि रूप अन्तिम फल याने सकल फलों के अन्तवर्ती फल मिलता है। गाथा याने संग्रह गाथा है । उसका लक्षण-विषम अक्षर और विषम चरण वाला इत्यादि छंद शास्त्र में प्रसिद्ध है। श्री धर्मदासगणि पूज्य ने भी उपदेश माला में कहा है कि

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