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परहितार्थकारिता गुण पर
आया । वहां आकर उसने राजा के चरण कमलों में प्रणाम किया तो राजा ने उसे गोद में बिठा कर क्षणभर छाती से लगा नीचे उतारा ताकि वह उचित आसन पर बैठा ।
पश्चात् वह अपने नीलकमल समान कोमल हाथों से प्रीति पूर्वक राजा के चरण कमल को अपनी गोद में ले उनकी चंपी करने लगा। इस प्रकार भक्ति करता हुआ वह राजा का हुक्म सुन रहा था। इतने में उद्यान पालक ने आकर राजा को निम्नानुसार बधाई दी।
हे देव ! राजा व देवों से वंदित हुए हैं पादारविन्द जिनके, ऐसे अरविन्द नामक मुनीश्वर बहुत से शिष्यों सहित कुसुमाकर उद्यान में पधारे हैं यह सुन राजा हर्ष से उसे बहुत सा दान देकर बहुत से मन्त्री तथा कुमार को साथ लेकर गुरु चरण को नमन करने आया । व बहुत से यतियों से परिवारित उक्त यतीश्वर को विधि पूर्वक वंदना करके बैठ गया । तब गुरु ने दु'दुभि समान उच्चस्वर से इस प्रकार धर्म सुनाया।
जो मनुष्य सदैव त्रिवर्गश न्य रहता हो उसका आयुष्य पशु समान निष्फल है । त्रिवर्ग में भी धर्म-साधन मुख्य है, क्योंकि उसके बिना काम व अर्थ नहीं होते । जो मनुष्य धर्म से अलग रहकर मनुष्य जन्म को केवल काम और अर्थ में पूर्ण करता है वह मूर्ख सुवर्ण के थाल में धूल डालता है। अमृत से पैर धोता है। चिन्तामणि के बदले कांच का टुकड़ा खरीदता है । अंबाड़ी से सुशोभित हाथी के द्वारा काष्ट के बोझे उठवाता है । सूत के तंतुओं के लिये बड़े २ निर्मल मोतियों की माला तोड़ता है । वह भद्र बुद्धि घर में उगे हुए कल्पवृक्ष को उखाड़ कर वहां धत्त रा बोता है । वह वास्तव में लौह के खीले के लिये बीच