Book Title: Dharmratna Prakaran Part 01
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 286
________________ भीमकुमार की कथा २७५ एक दिन किसी ने मुझ पर मत्सर लाकर राजा को ऐसा झूठा समझाया कि यह पुरोहित चांडालिनी के साथ गमन करता है । तब मैं ने उसकी पूर्ण खातरी करने के लिये काल विलंब करने को कहा । तो भी इसने मुझे सन से लपेटा कर, तेल छिड़का रोता २ जलवा दिया । तब दुःखी हो मर कर मैं अकामनिर्जरा के योग से सर्वगिल नामक राक्षस हुआ । पश्चात् वैर स्मरण कर मैं यहां आया और मैंने इस नगर के सकल लोगों को अदृश्य किया व तदनन्तर नरसिंह रूप करके इस राजा को पकड़ा । किन्तु . करुणायुक्त पौरुष गुण रूप मणि के समुद्र आपने उसे छुड़ाया जिससे हे सुमतिवान् ! मेरा मन अत्यन्त चमत्कृत हुआ है। . यह स्नानादिक आपका सम्पूर्ण उपचार मैंने अदृश्य रूप रहकर भक्ति पूर्वक दिव्य शक्ति के द्वारा किया है । व आपके चरित्र से प्रसन्न होकर मैंने इस नगर के लोगों को प्रकट किये हैं। यह सुन कुमार ने दृष्टि फिरा कर देखा तो सर्व लोग नजर आये । इतने में कुमार ने विशिष्ट देवों सहित चारण मुनींद्र को आकाश मार्ग से उतरते देखा । वे आचार्य जहां कुमार मन्त्रीसुत को छोड़ आया था। वहां देवरचित सुवर्ण कमल पर बैठकर धर्मकथा करने लगे। अब भीमकुमार की प्रेरणा से सर्वगिल, मन्त्रीकुमार, कनकरथ तथा समस्त नगर जन गुरु को नमन करने आये। वे भूमि पर मस्तक लगा हर्षित मन से पाप को दूर करते हुए मुनीश्वर को नमन करके इस प्रकार देशना सुनने लगे। ____ क्रोध सुखरूप झाड़ को काटने के लिये परशु समान है। वैरानुबंध रूप कंद को वृद्धि करने को मेघ समान है । संताप को उत्पन्न करने वाला है और तपनियम रूप वन को जलाने के लिये अग्नि समान है । कोप के भराव से उछ खल शरीर घाला

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