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भद्रनन्दी कुमार की कथा
देव भुवन के अंदर स्थित दोगु दक देव के समान विषय सुख भोगने लगा ।
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वहां स्तूपकरंड उद्यान में एक समय भगवान् वीर प्रभु पधारे। उसी समय समाचार देनेवाले ने शीघ्र जाकर राजा को बधाई दी। राजा ने उसे साढ़े बारह लाख प्रीतिदान दिया । पश्चात् कोणिक के समान वह वीर प्रभु को वन्दना करने के लिये रवाना हुआ ।
भद्रनंदी कुमार भी बाजे गाजे से चलता हुआ धर्मशील परिवार सहित, उत्तम रथ पर चढ़कर वीर प्रभु को नमन करने के लिये आया । कुमार की प्रीति के कारण अन्य भी बहुत से कुमार परिजन सहित प्रभु को वन्दना करने के लिये चले । वे वहां आकर जिन प्रभु को नमन कर धर्म सुनने लगे । वीर प्रभु ने भी उनको ' जीव किस प्रकार कर्म से बंधते हैं और किस प्रकार छूटते हैं ' यह विषय कह सुनाया ।
जिसे सुन, भद्रनंदी आनन्दित मन से वीर प्रभु से सम्यक्त्व निर्मल गृही - धर्म स्वीकार कर अपने स्थान को आया ।
मूल
इस अवसर पर गौतम स्वामी दुःख शमन करने वाले महावीर प्रभु को पूछने लगे कि हे प्रभु ! यह भद्रनंदी कुमार देव के समान रूपवान है । चन्द्र के समान सौम्य मूर्तिमान है । सौभाग्य का निधान है । सकल जन को प्रिय है और साधुओं को भी विशेष करके सम्मत है । यह कौन से कर्म से ऐसा हुआ है।
जिनेश्वर बोले कि यह महाविदेह क्षेत्र में पु'डरीकिणी नगरी में विजय नामक कुमार था । वह सनत्कुमार के समान रूपवान था । उसने एक समय प्रवर गुण शोभित जगद्गुरु