Book Title: Dharmratna Prakaran Part 01
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 235
________________ २२४ विनय गुण पर दृढ़ प्रतिज्ञ हुआ कि- उसके गुणों से संतुष्ट होकर देवता भी उसकी अनेक बार स्तुति करने लगे। __ गुरु उसे बारबार मधुर वचनों से उत्तेजित करते कि- हे महाशय ! तेरा जन्म और जीवन सफल है। तू राज्य त्याग कर राजर्षि हुआ है । तथापि द्रमक मुनि की भी विनय व वैयावृत्त्य करता है। जिससे तू इस वचन को सच्चा करता है किकुलीन पुरुष पहिलों को नमन करते हैं और अकुलीन पुरुष ही वैसा करने में रुकते हैं । क्योंकि चक्रवर्ती भी जब मुनि होता है तो अपने से पहिले के समस्त मुनियों को नमन करता है। इस प्रकार केवलो भगवान के उसकी उपबृहणा करते भी उसने मध्यस्थ रहकर बहत्तर लाख पूर्व तक उक्त व्रत का निष्कलंकता से पालन किया । संपूर्ण अस्सीलाख पूर्व का आयुष्य पूर्णकर अंत में पादपोपगमन नामक अनशन करके संम्पूर्ण ध्यान मग्न रहकर, विमल ज्ञान प्राप्तकर, सफल कर्म संतान को तोड़ वह भुवनतिलक साधु भुवनोपरि सिद्धस्थान को प्राप्त हुआ। इस प्रकार विनय गुण से सकल सिद्धि को पाये हुए धनद नृपति सुत का चरित्र सुनकर सकल गुणों में श्रेष्ठ और इस अखिल जगत् में विख्यात विनय नामक सद्गुण में अश्रान्त भाव से मन धरो। इस प्रकार भुवनतिलक कुमार की कथा समाप्त हुई। विनय ( विनीतता ) रूप अठारहवां गुण कहा । अब उन्नीसवें कृतज्ञता रूप गुण का अवसर है । वहां दूसरे के किये

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