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सौम्यदृष्टित्व गुण पर
दयालुत्व रूप दशवां गुण कहा । अब मध्यस्थ सौम्यदृष्टित्वरूप ग्यारहवे गुण को कहना चाहते हुए कहते हैं।
मज्झत्थ सोमदिट्ठी धम्मवियारं जट्टियं मुणइ । कुणइ गुणसंपओगं दोसे दूरं परिचयइ ।। १८ ॥ मूल का अर्थ-मध्यस्थ और सौम्यदृष्टि वाला पुरुष वास्तविक धर्म विचार को समझ सकता है, और गुणों के साथ मिल, दोषों को दूर से त्याग कर सकता है। टीकार्थ-मध्यस्थ याने किसी भी दर्शन में पक्षपात रहित और प्रद्वष नहीं होने से सौम्यदृष्टि याने देखने की दृष्टि जिसकी हो वह मध्यस्थ-सौम्यदृष्टि कहलाता है-अर्थात जो सर्व स्थान में रागद्वेष रहित हो उसे मध्यस्थ-सौम्यदृष्टि मानना ।
(वैसा पुरुष) धर्म विचार को याने कि अनेक पाखंडियों की मंडलियों के मंडप में उपस्थित हुए धर्म रूपी माल के स्वरूप को यथावस्थित रूप से याने कि सगुण को सगुण रूप से, निर्गुण को निर्गुण रूप से, अल्प गुण को अल्प गुण रूप से और बहु गुण को बहु गुण रूप से सोने की परीक्षा में कुशल सच्चे सोने के ग्राहक मनुष्य की भांति पहिचान लेता है।
इसीसे (वैसा पुरुष) गुण संप्रयोग याने ज्ञानादिक गुणों के साथ संबंध करता है याने ( वैसे ही) उसके प्रतिपक्ष भूत दोषों को दूर से त्यागता है याने छोड़ता है, सोमवसु ब्राह्मण के समान
सोमवसु की कथा इस प्रकार है। जैसे गन्ने (ईख) में अनेक पर्व (गांठे) होती हैं, वैसे