Book Title: Dharmrasayana
Author(s): Padmanandi, Vinod Sharma
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 8
________________ परिचइऊण कुधम्मं तम्हा सव्वण्हुभासिओ धम्मो । संसाररुत्तरण गहियव्वो बुद्धिमंतेहिं । ' धर्म के भेदों का विवेचन करते हुए मुनीन्द्र ने कहा है कि जिनों के द्वारा धर्म दो प्रकार के बतलाये गये हैं- सागार (गृहस्थ) तथा अनगार (संन्यास) 2। जिसमें पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत हैं उसे सागार धर्म कहा गया है। ' अनगारों के लिए सर्वदा सब प्रकार से आचरणीय अट्ठाईस मूलगुण तथा अनेक उत्तरगुण बतलाये गये हैं । इस प्रकार का धर्म ही अनगार धर्म है । ' 5 मुनिश्रीपद्मनन्दि के अनुसार सागार एवं अनगार दोनों प्रकार के धर्मों का सार 'सम्यक्त्व' है- 'एएसिं दोन्हं पि हु सारं खलु होइ सम्मत्तं'" । सम्यक्त्वरूपी जल का प्रवाह जिसके हृदय में सर्वदा प्रवाहित होता है, कर्मरूपी बालू का आवरण उसे बन्धन में नहीं डाल सकता । सम्यक्त्वरूपी रत्न की प्राप्ति हो जाने पर जीव को नरक एवं तिर्यक् गतियों में नहीं जाना पड़ता सम्मत्तरयणलब्भे णरयतिरिक्खेसु णत्थि उववाओ । जइण मुअइ सम्मत्तं अहव ण बंधाउसो पुव्वं ॥ " अन्त में वह भव-भ्रमण से मुक्त होकर मोक्ष - सुख का आस्वादन करता है । 1. 2. 3. 4. - धम्मरसायणं, 95 धम्मो जिणेण भणिओ सायारो तह हवे अणायारो । तदेव, 139 पंच अणुव्वा गुणव्वयाइं हवंति तिण्णेव । चत्तारिय सिक्खावययाइं सायारो एरिसो धम्मो ॥ तदेव, 142 अट्ठदस पंच पंच य मूलगुणा सव्वतो सदाणयाराणं । उत्तरगुणा अणेया अणयारो एस्सिो धम्मो ॥ तदेव, 183 5. तदेव, 139 6. तदेव, 140 7. तदेव, 141 Jain Education International विनोद कुमार शर्मा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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