Book Title: Dharmrasayana
Author(s): Padmanandi, Vinod Sharma
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 33
________________ धर्मरसायन -22 णेरयाणं तण्हा तारसिया होइ पावयम्माणं । जा सव्वसमुद्देहिं या पीएहिं ण उवसमं जाइ ।।8।। नारकाणां तृष्णा तादृशी भवति पापकर्मणाम् । या सर्वसमुद्रेषु च पीतेषु न उपशमं याति ।।6।। पापकर्म करने वाले नरकवासियों को ऐसी प्यास लगती है कि वह समस्त समुद्रों का जल पी लेने पर भी शान्त नहीं हो सकती। तारिसिया होइछुहा णरयम्मि अणोवमा परमघोरा। जातिहूयणे विसयलेखद्धम्मिण उवसमंजाइ।।701 तादृशी भवति क्षुत् नरके अनुपमा परमघोरा। या त्रिभुवनेऽपिसकलेखादितेन उपशमंयाति।।701 नरक में ऐसी अनुपम तथा अत्यन्ततीव्र भूख लगती है जो कि तीनों लोकों को पूरी तरह खा लेने पर भी शान्त नहीं हो सकती। चुण्णीकओ वि देहो तक्खणमेतेण होइ संपुण्णो। तेसिं अउण्णयाले मिच्चू ण होइ पावाणं 17 111 चूर्णीकृतोऽपि देहस्तत्क्षणमात्रेण भवति सम्पूर्णः । तेषामपूर्णकाले मृत्युनभवति पापानाम् ।।71|| नरक में चूर-चूर कर देने पर भी शरीर तत्क्षण सम्पूर्ण हो जाता है तथा (नरक की) अवधि पूर्ण होने से पहले उन पापियों की मृत्यु नहीं होती है। उप्पण्णसमयपहुवी आमरणंतं सहति दुक्खाई। अच्छिणिमीलयमेत्तं सोक्खं ण लहंति णेरइया 172|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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