Book Title: Dharmrasayana
Author(s): Padmanandi, Vinod Sharma
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 40
________________ 29 -धर्मरसायन छम्मासाउगसेसे विलाइ माला विणस्सए छाए। कंपति कप्परुक्खा होइ विरागो य भोयाणं ॥90॥ षण्मासायुष्कशेषे विलीयते माया विनश्यति छाया। कम्पन्तेकल्पवृक्षा भवति विरागश्च भोगेभ्यः।।901 मात्र छःमास की आयु शेष रह जाने पर माया विलीन हो जाती है, छाया (असत्य कल्पना) नष्ट हो जाती है, कल्पवृक्ष काँपने लगते हैं और तब उस जीव को भोगों से वैराग्य हो जाता है। बहुणदृगीयसाला जाणाविहकप्पतरुवराइण्णे। भो सुरलोयपहाणा णक्खयपडतयं विसमं ।।91॥ बहुनृत्यगीतशाला नानाविधकल्पतरुवराकीर्णाः । भोः सुरलोकप्रधानाः नक्षत्रे पतन्ति विषमे ||91।। विविध प्रकार के कल्पतरु आदि देववृक्षों से घिरी हुई अनेक नृत्य-गीतशालाएँ तथा देवलोक के प्रधान-सभी विषमदशा में पड़ जाते हैं। वसियव्वं कुच्छीए कुणिमाए किमिकुलेहिं भरियाए। पीयव्वं कुणिमपयं जणणीए मे अहम्मेण 192।। वस्तव्यं कुक्ष्यां कुणपायां कृमिकुलैः भृतायाम् । पातव्यं कुणपपयं जनन्या मया अधर्मेण ||92|| (वह सोचने लगता है कि अब) पापाचरण के कारण मुझे कीड़ों से भरी हुई बदबूदार कुक्षि (गर्भाशय) में रहना होगातथा माता के दुर्गन्धयुक्तयाघृणितपेय को पीना होगा। तात्पर्य यह है कि गर्भकाल में माता के रज आदि का पान करना होगा। सो एवं विलवंतो पुण्णवसाणम्मि असरणो संतो। मूलच्छिण्णो वि दुमो णिवडइ हेद्वामहो दीणो 1931 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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