Book Title: Dharmrasayana
Author(s): Padmanandi, Vinod Sharma
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 62
________________ 51 -धर्मरसायन तेषां भवन्ति समीपे बहुभेदजलाशयाः परमरम्याः । शोभन्ते सर्वकालं फलपुष्पप्रवालपत्रैः ।।1601 उनके समीप अनेक प्रकार के रमणीय जलाशय होते हैं जो फलों, फूलों, किसलयों तथा पत्तों से सर्वदा सुशोभित रहते हैं। दळूण य उप्पति केई विजंति सेयचमरेहि। केई जयजयसद्दे कुव्वंति सुरा सउच्छाहा ।।161॥ दृष्ट्वा चोत्पत्ति केचित् वीजयन्ति श्वेतचमरैः । केचित्जयजयशब्दान्कुर्वन्तिसुराःसोत्साहाः।।161। किसी की स्वर्ग में उत्पत्ति को देखकर कुछ देवता श्वेत चमरों से उसकी हवा करते हैं तथा कुछ देवता उत्साहपूर्वक उसकी जय-जयकार करते हैं। वरमुरवदुंदुहिरओ भेरीओ संखवेणुवीणाओ। पटुपडहाल्लरियो वायंति सुरा सलीलाए ।।182।। वरमुरजदुन्दुभिरवानि भेर्यः शंखवेणुवीणाः । पटुपटहझल्लर्य: वादयन्ति सुराः सलीलया||162|| स्वर्ग में देवता लीलापूर्वक श्रेष्ठ मुरज (मृदंग), दुन्दुभी, घण्टा, भेरी, शंख, वेणु, वीणा, प्रखर नगाड़े तथा झल्लरी बजाते हैं। गायंति अच्छराओ काओ विमणोहराओ गीयाओ। काओ वि वरंगीओ णच्चंति विलासवेसाओ ।।163। गायन्ति अप्सरसः का अपि मनोहराणि गीतानि । का अपि वराङ्गा नृत्यन्ति विलासवेषाः ।।163|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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