Book Title: Dharmrasayana
Author(s): Padmanandi, Vinod Sharma
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 61
________________ धर्मरसायन -50 एयाई वयाइं णरो जो पालइ जइ सुद्धसम्मत्तो । उप्पन्जिऊणसम्गेसोभुंजइइच्छियं सोक्खं ।।157।। एतानिव्रतानि नरोयःपालयति यदिशुद्धसम्यक्त्वः । उत्पद्य स्वर्गे सः भुङ्क्ते इच्छितं सौख्यम् ||157।। शुद्ध सम्यक्त्वसे युक्त जो मनुष्य इन (पूर्वोक्त) व्रतों का पालन करता है, वह स्वर्ग में उत्पन्न होकर अभीष्ट सुखों को भोगता है। दिव्वाणि विमाणाणि य सुरलोए होंति पंचवण्णाइं। दित्तीए आयव्वं जिणंति चंदस्स कंतीए ।।158।। दिव्यानि विमानानि च सुरलोकेभवन्ति पञ्चवर्णान। दीप्त्या आतपंजीयन्ते चन्द्रस्य कान्त्या ||158|| देवलोक में पाँच रंगों वाले दिव्य विमान होते हैं जो अपनी आभा से चन्द्रमा की कान्ति को भी जीत लेते हैं। सोहंति ताई णिच्चं पलंबवरहेमदामघंटाहिं । बहुविहकूडेहिं तहा जाणाविहधयवरहिं ।।159।। शोभन्ते तानि नित्यं प्रलम्बवरहेमदामघण्टाभिः ॥ बहुविधकूटैः तथा नानाविधध्वजपताकाभिः ।। 159।। वे विमान सदा लटकती हुई श्रेष्ठस्वर्णमालाओं की घण्टियों से, अनेक प्रकार के शिखरों से तथा तरह-तरह की ध्वज-पताकाओं से सुशोभित होते हैं। तेसिं होंति समीवे बहुभेयजलासया परमरम्मा । सोहंति सव्वकालं फलपुप्फपवालपत्तेहिं ।।16011 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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