Book Title: Dharmrasayana
Author(s): Padmanandi, Vinod Sharma
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 71
________________ धर्मरसायन -60 ण विअस्थि माणुसाणं आदसमुत्थं चिय विसयातीदं । अव्वुच्छिण्णं च सुहं अणोवमं जंच सिद्धाणं॥190॥ नाप्यस्तिमनुजानां आत्मसमुत्थं एव विषयातीतम्। अव्युच्छिन्नं च सुखं अनुपमं यच्च सिद्धानाम्।।190|| जो अनुपम तथा निर्बाध सुख आत्मा का समुत्थान करने वाले विषयातीत सिद्धों को प्राप्त है, वह मनुष्यों को प्राप्त नहीं है। अविहकम्मवियड (ला) सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा। अद्वगुणा किदकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा ।।191|| अष्टविधकर्मविकला:शीतीभूता निरञ्जना नित्याः। अष्टगुणाःकृतकृत्यालोकाग्रनिवासिनःसिद्धाः।।191 || लोकाग्र पर निवास करने वाले वे सिद्ध भगवान् आठ प्रकार के कर्मों से विरहित, निष्काम, निरञ्जन (निर्दोष), नित्य, (सम्यक्त्व आदि) आठ गुणों से युक्ततथा कृतकृत्य होते हैं। सम्मत्त णाण दंसण वीरिय सुहमं तहेव अवगहणं । अगुरुलघुमव्वावाहं अद्वगुणा होति सिद्धाणं।।192।। सम्यक्त्वं ज्ञानं दर्शनं वीर्यं सूक्ष्म तथैवावगाहनम् । अगुरुलघुअव्याबाधं अष्टगुणाभवन्ति सिद्धानाम्।।192|| सिद्धों के आठ गुण होते हैं- 1. सम्यक्त्व, 2. ज्ञान, 3. दर्शन, 4.वीर्य, 5. अमूर्तत्व (सूक्ष्म), 6. अवगाहन, 7. अगुरुलघु तथा 8. अव्याबाध। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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