Book Title: Dharmrasayana
Author(s): Padmanandi, Vinod Sharma
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 68
________________ 57 - धर्मरसायन भुक्त्वा मनुजलोके सर्वान् हृदयेप्सितान् अविघ्नेन । भूत्वा भोगविरतोजिनदीक्षांगृह्णातिपरमाम्।।180 ॥ मनुष्यलोक में निर्विघ्नरूप से समस्त मनोवाञ्छित सुखों को भोगकर, तत्पश्चात् भोगों से विरत होकर वह जीव (आत्मा) परम जिनदीक्षा को ग्रहण करता है। डहिऊण य कम्मवणं उग्गेण तवाणलेण णिस्सेसं। आपुण्णभवं अणंतं सिद्धिसुहं पावर जीओ।।181|| दग्ध्वा च कर्मवनं उग्रेण तपोऽनलेन निःशेषम्। आपूर्णभवमनन्तं सिद्धिसुखं प्राप्नोतिजीवः।।181|| वह अपनी उग्र तपरूपी अग्नि से कर्मरूपी वन को पूर्णरूपेण दग्ध करके, आयुष्य के पूर्ण होने पर अनन्त सिद्धिसुख को प्राप्त करता है। सुमणुसहिए वल्लहमणाइसिद्धं तओ समासेण । अणयारपरमधम्मं वोच्छामि समासओ पत्तो।।182|| सुमनुष्यहितं वल्लभम् अनादिसिद्धं ततः समासेन । अनगारपरमधर्मं वक्ष्ये समासतः प्राप्तम् ।।182|| अब मैं संक्षेप में परमअनगार (संन्यास) धर्म को साररूप से कहता हूँजो श्रेष्ठ मानव जीवन के लिए हितकर, प्रिय तथा अनादिसिद्ध है। अट्ठदस पंच पंच य मूलगुणा सव्वतो सदाणयाराणं। उत्तरगुणा अणेया अणयारो एरिसो धम्मो ।।183।। अष्टादश पञ्च पञ्च च मूलगुणाः सर्वतः सदानगाराणां। उत्तरगुणा अनेके अनगार एतादृशो धर्मः ||183|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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