Book Title: Dharmrasayana
Author(s): Padmanandi, Vinod Sharma
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 42
________________ 31 - - धर्मरसायन सव्वण्हू वि य णेया लोए बह्माणहरिहराईया। तम्हा परिक्खियव्वा सव्वेण णरेण कुसलेण 196।। सर्वज्ञा अपि च ज्ञेया लोके ब्रह्महरिहरादिकाः । तस्मात् परीक्षितव्या सर्वैः नरैः कुशलैः ।।96|| लोक में ब्रह्मा, हरि (विष्णु) तथा हर (शंकर) आदिको भी सर्वज्ञ के रूप में जाना जाता है। अतः सभी कुशल मनुष्यों को उनकी परीक्षा (परख) करनी चाहिए। खटुंगकपालहरो डमख्य वज्जत भीसणायारो। णच्चइ पिसायसहिओ रयणीए पिउवणे भीमे 197॥ जो तिक्खदाटभीसणपिंगलणयणेहि दाहिणमुहेण । भक्खेइ सव्वजीवे सो परमप्पो कहं होइ ।।981 खट्वाङ्गकपालधरः डमरुकं वादयन् भीषणाकारः । नृत्यति पिशाचसहितः रजन्यां पितृवने भीमे ||97|| यः तीक्ष्णदाढभीषणपिङ्गलनयनैः दाहकमुखेन । भक्षयति सर्वजीवान् स परमात्मा कथं भवति ||98|| जो खट्वाङ्ग (सोटा या लकड़ी जिसके सिरे पर खोपड़ी जड़ी हो) तथा कपाल धारण करता है, डमरू बजाता है, भयानक आकृति वाला है, पिशाचों के साथ रात में भयंकर श्मशान में नृत्य करता है, जो पैनी दाढ़ वाले तथापीले भीषण नेत्रों वाले दाहक मुख से समस्त जीवों को खा जाता है ,वह परमात्मा कैसे हो सकता है ? अहवा सो परमप्पो जइ होइ जयम्मि दोसजुत्तो वि। ताभीसणरूओ (पुण) णिसायरो केरिसो होइ।।७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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